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पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी (Pranab Mukherjee) का जाना देश के लिए एक अपूर्णनीय क्षति है. राजनीति से लेकर फिल्म और खेल जगत तक उनकी मृत्यु का शोक मना रहा है. राष्ट्रपति बनने से पहले कांग्रेसी नेता रहे प्रणब दा के जाने पर आज विरोधी दल के नेता तक दुखी हैं. इसकी वजह है प्रणब मुखर्जी का सौम्य व मिलनसार स्वभाव, असाधारण विवेक और अनेक उच्च पदों पर रहते हुए भी जमीन से जुड़ा होना.
मुखर्जी न राष्ट्रपति रहते हुए तो देश के लिए कई बड़े फैसले लिए, वित्त मंत्री के तौर पर भी उनका कार्यकाल कुछ हद तक देश की अर्थव्यवस्था के लिए अहम रहा. प्रणब दा ने दो बार देश के वित्त मंत्री की कमान संभाली. पहली बार उदारीकरण से पहले इंदिरा गांधी सरकार में जनवरी 1982 से दिसंबर 1984 तक और दूसरी बार उदारीकरण के बाद मनमोहन सिंह सरकार में जनवरी 2009 से जून 2012 तक.
पहला कार्यकाल
इंदिरा गांधी सरकार में पहली बार वित्त मंत्री के रूप में प्रणब दा ने अप्रवासी भारतीयों को भारत में निवेश करने के लिए छूट की पेशकश की, जिनमें उन्हें सेकंडरी मार्केट से शेयर खरीदने की अनुमति शामिल रही. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के लोन को चुकाने के लिए वित्त मंत्री के रूप में प्रणब दा ने काफी वाहवाही बटोरी थी.
रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स का प्रस्ताव
दूसरी बार वित्त मंत्री के तौर पर प्रणब दा के कार्यकाल की सबसे बड़ी हाइलाइट रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स रहा. 2012 में प्रणब मुखर्जी ने बजट 2012-13 पेश करते हुए आयकर कानून 1961 को रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स के साथ संशोधित करने का प्रस्ताव रखा. यह प्रस्ताव इसलिए रखा गया ताकि वोडाफोन जैसे विलय व अधिग्रहण के विदेश में होने वाले सौदों पर टैक्स लगाया जा सके क्योंकि ऐसी डील्स में डॉमेस्टिक एसेट्स शामिल होते हैं. मुखर्जी के इस प्रस्ताव की काफी आलोचना हुई, जबकि इससे पहले उनके द्वारा लाए गए कुछ कर सुधारों को अर्थशास्त्रियों और विश्लेषकों ने सराहा था. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी भी रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स के प्रस्ताव से सहमत नहीं थे.
अपनी किताब ‘The coalition Years: 1996 to 2012’ में प्रणब मुखर्जी ने रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स लाने के फैसले का बचाव करते हुए कहा है कि उन्होंने यह सोचकर इस प्रस्ताव को रखा था कि डायरेक्ट टैक्स को देशी और विदेशी कंपनियों में भेदभाव करने वाला नहीं होना चाहिए. लेकिन विशेषज्ञों और विपक्ष ने कहा कि इससे विदेशी निवेशक डर जाएंगे.
2009-10 के बजट प्रस्ताव
प्रणब मुखर्जी ने 2009-10 के बजट में प्रस्ताव दिया कि सीनियर सिटीजन के लिए इनकम टैक्स एग्जेंप्शन लिमिट को 15000 रुपये बढ़ाया जाए, वहीं महिलाओं व अन्य के लिए यह लिमिट 10-10 हजार रुपये बढ़ाई जाए. इसके अलावा कॉरपोरेट टैक्स रेट में कोई बदलाव नहीं किया जाए. उनके इस प्रस्ताव का विश्लेषकों ने स्वागत किया. इसी बजट में मुखर्जी ने फ्रिंज बेनिफिट टैक्स और कमोडिटी ट्रांजेक्शन टैक्स को खत्म कर दिया. इस फैसले की भी विशेषज्ञों ने सराहना की.
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डायरेक्ट टैक्स कोड के आर्किटेक्ट
मुखर्जी को डायरेक्ट टैक्स कोड का आर्किटेक्ट भी माना जाता है. हालांकि यह कोड कभी लागू नहीं हुआ. इस कोड में मुखर्जी ने आयकर कानून को रिप्लेस करने का प्रस्ताव रखा था ताकि आयकर बेस को बढ़ाया जा सके. उन्होंने टैक्स एग्जेंप्शन लिमिट बढ़ाने और टैक्स स्लैब्स में कुछ बदलाव करने का प्रस्ताव रखा था. नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा बजट 2020 में लाए गए वैकल्पिक आयकर स्लैब्स डायरेक्ट टैक्स कोड के अनुरूप ही एक कदम है.
जब छोड़ा वित्त मंत्री पद
2012 के राष्ट्रपति चुनावों से पहले जब मुखर्जी ने वित्त मंत्री के पद से इस्तीफा दिया, उस वक्त भारतीय अर्थव्यस्था बुरी तरह चरमराई हुई थी. इकोनॉमिक ग्रोथ धीमी थी, महंगाई बेहद ज्यादा थी, ब्याज दरें काफी हाई थीं, रुपये काफी टूट चुका था, निवेशकों का कॉन्फिडेंस डगमगाया हुआ था और रेटिंग एजेंसियां भारत की सॉवरेन रेटिंग्स को लेकर आउटलुक को डाउनग्रेड कर चुकी थीं. एक साल में रुपया, डॉलर के मुकाबले 20 फीसदी टूट चुका था, इससे अर्थव्यवस्था पर मुद्रास्फीति को लेकर बेहद ज्यादा दबाव बन रहा था, विशेषकर कच्चे तेल के आयात के मामले में.
वित्त मंत्री के रूप में मुखर्जी का कार्यकाल भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ज्यादा सकारात्मकता भरा नहीं रहा. लेकिन अकेले मुखर्जी इसके लिए जिम्मेदार नहीं थे. उस वक्त पूरी दुनिया महा मंदी के बाद रिकवरी मोड में थी.
इसमें भी अहम भूमिका
साल 2004 से 2012 तक मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में प्रणब दा ने सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (UIDAI) और मेट्रो रेल परियोजना की स्थापना जैसे महत्वपूर्ण निर्णयों में अहम भूमिका निभाई. वहीं भारत के राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्रपति के लिए 'महामहिम' शब्द का प्रचलन भी प्रणब मुखर्जी ने ही समाप्त किया.