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वैक्सीन को तैयार करने में कई स्टेज शामिल होती हैं. (Representational Image)
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ICMR ने कोविड-19 की वैक्सीन को लॉन्च करने का एलान किया है. इससे वैक्सीन के बनने और तैयार होने के समय को लेकर चर्चा शुरू हो गई है. वैक्सीन को विकसित करने की प्रक्रिया लंबी है जिसमें दशक तक लग सकते हैं. इसमें अनिश्चित्ता और विपरीत नतीजे की संभावना भी बनी रहती है.
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, HIV की वैक्सीन पर तीन दशकों से ज्यादा समय से काम चल रहा है और यह अभी भी क्लिनिकल ट्रायल के तीसरे चरण में है. जो वैक्सीन इसके मुकाबले तेजी से तैयार हुई, उनमें भी कई साल लगे. उदाहरण के लिए, mumps के लिए वैक्सीन को दुनिया की सबसे तेजी से विकसित हुई वैक्सीन में से एक माना जाता है. इसे 1960 के दशक में चार साल के क्लिनिकल ट्रायल के बाद मंजूरी मिली थी.
इस साल मार्च में US नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिजीज के डायरेक्टर Antony Fauci ने यूएस सिनेट को अपने बयान में अगले 1 से डेढ़ साल में वैक्सीन को विकसित करने में व्यवस्था की अक्षमता व्यक्त की. उन्होंने यह भी कहा कि डेढ़ साल की समयावधि भी तब मैनेज की जा सकती है, जब इमरजेंसी मंजूरी रेगुलेटर उपलब्ध कराएं. वैक्सीन को तैयार करने में कई स्टेज शामिल होती हैं जो रिसर्च एवं डेवपलमेंट से शुरू होकर अंतिम डिलीवरी तक जाती है और इसमें आबादी पर बड़े स्तर पर इस्तेमाल किया जाता है.
स्टेज 1: रिसर्च एंड डेवपलमेंट
इस प्रक्रिया में दो से चार साल का समय लगता है और यह कोरोना वायरस की स्थिति में बहुत तेज रही है. इसके पीछे कारण यह है कि चीन की सरकार ने जनवरी में ही वायरस के जेनेटिक सिक्वेंस को साझा कर दिया था, जिस समय वायरस केवल चीन में था. और अधिकतर वैक्सीन वायरस के प्रोटीन की जगह उसके जेनेटिक सिक्वेंस पर आधारित होती हैं.
स्टेज 2: प्री क्लिनिकल
रिसर्च और डेवलपमेंट के पूरे होने के बाद, वैक्सीन को जानवरों और पौधों पर टेस्ट किया जाता है जिससे उनकी क्षमता और का कामकाज का आकलन किया जा सके. वैज्ञानिक इस बात को चेक करते हैं क्या वैक्सीन से जानवर या पौधे में इम्यून रिस्पॉन्स पैदा होता है. अगर जवाब नहीं होता है, तो विकास दोबारा स्टेज 1 पर चला जाता है जिससे प्रक्रिया बहुत लंबी हो जाती है.
स्टेज 3: क्लिनिकल ट्रायल
यह वैक्सीन के विकास में सबसे संवेदनशील और अहम स्टेज होती है क्योंकि इसमें क्षमता को इंसानों पर टेस्ट किया जाता है. ऐसी बहुत से कैंडिडेट हैं, जो स्टेज 2 में पहुंचकर सफल हो जाते हैं लेकिन स्टेज 3 में असफल रहते हैं. यह स्टेज ही अकेले 90 महीने तक या सात साल से ज्यादा का समय लेने की क्षमता रखती है. इस स्टेज में तीन फेज शामिल होत हैं.
फेज 1: इसमें वैक्सीन का इस्तेमाल लोगों के छोटे समूह पर किया जाता है और उन्हें टेस्ट किया जाता है क्या उनके शरीर में एंटीबॉडी विकसित हुई हैं या नहीं. इसमें तीन महीने तक लग सकते हैं.
फेज 2: जिन लोगों को वैक्सीन दी जानी है, उसे बढ़ाकर कई सैकड़ों तक ले जाया जाता है और इसमें औसत 6 से 8 महीने का समय लग सकता है. यह देखा जाता है कि उनमें बीमारी के खिलाफ इम्यून रिस्पॉन्स विकसित हुआ या नहीं. वैक्सीन की आम और विपरीत रिएक्शन पैदा करने की क्षमता का भी विश्लेषण किया जाता है. इस स्टेज को कोरोना वायरस के मामले में छोटा किया गया है क्योंकि कई कैंडिडेट जो कुछ दिन पहले फेज 2 में थे, वे अब क्लिनिकल ट्रायल फेज 3 में पहुंच गए हैं.
फेज 3: हजारों लोगों पर वैक्सीन का आकलन किया जाता है और यह देखने की कोशिश होती है कि वैक्सीन बड़ी आबादी में कैसे काम करती है. यह दोबारा 6 से 8 महीने का समय ले सकती है.
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स्टेज 4: रेगुलेटरी रिव्यू
इंसानी ट्रायल के कई स्टेज और फेज में कामयाब रहने के बाद, वैक्सीन के कैंडिडेट को मैन्युफैक्चरिंग की प्रक्रिया में जाने से पहले रेगुलेटरी समर्थन की जरूरत होती है. आम तौर पर इसमें लंबा समय लगता है, लेकिन इस जैसी सार्वजनिक आपातकाल की स्थिति में समयावधि को कम किया जा सकता है.
स्टेज 5: मैन्युफैक्चरिंग और क्वालिटी कंट्रोल
इस स्टेज में वैक्सीन का उत्पादन करने वाली कंपनी के बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और वित्तीय संसाधन की जरूरत होती है जिससे वैक्सीन के निर्माण की प्रक्रिया को बड़े स्तर पर शुरू किया जा सके.