El-Nino Impact: इंडियन मेट्रोलोजिकल डिपार्टमेंट (IMD) ने एल-निनो (EL-Nino) को लेकर एक चेतावनी जारी की है. IMD ने कहा है कि इस मानसून में एल नीनो के विकसित होने की लगभग 70 फीसदी संभावना है. अगर IMD की बात सच साबित हुई तो देश के खरीफ उत्पादन पर इसका प्रभाव पड़ सकता है. पहले से ही इस बात का अनुमान लगाया जा रहा था कि इस साल मॉनसून देरी से शुरू हो सकता है और आने वाला दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून इस बार छोटा हो सकता है. कई जानकार इसे एल-निनो के साथ भी जोड़ कर देख रहे हैं. अमेरिका के नेशनल ओसेनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) ने इस बात पर मुहर लगाईं है कि एल-निनो के बनने की उम्मीद 80-90 फीसदी है.
क्या होता है EL-Nino?
साल 1600 में एल-निनो का मामला पहली बार सामने आया था. आमतौर पर जब एक जगह से दूसरे जगह पर जाने वाली हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं तब नीनो की स्थिथि बनती है. इसके वजह से से तापमान और बढ़ता है. इससे समुंद्र का तापमान भी 2-3 डिग्री तक बढ़ जाता है. इस घटना को ही एल- नीनो कहते हैं. मौसम के अलावा, इसका समुंद्री जीव-जन्तुओं पर भी असर पड़ता है. मछलियों की ढेरों प्रजातियां तापमान के इस बदलाव को सहन नहीं कर पाती हैं. कई बार कुछ जगहों पर इसका असर तुरंत दिखता है लेकिन कई जगहों पर इस प्रभाव देर से देखने को मिलता है. इसपर शारदा यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ एनवायरनमेंट साइंस के हेड ऑफ डिपार्टमेंट, प्रमोद के सिंह का कहना है कि वैश्विक तापमान पर एल-नीनो का प्रभाव तुरंत नहीं होता है बल्कि इसमें समय लगता है. नतीजतन, कुछ क्षेत्रों में इसके प्रभाव तुरंत नहीं देखे जा सकते हैं.
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भारतीय मानसून पर इसका कैसा होगा असर?
अल नीनो का मौसम पर नकारात्मक प्रभाव कई बार पड़ा है. इस बार अल नीनों की चेतावनी ने भारत की चिंता को बढ़ा दिया है. जानकार बताते हैं कि इसके इम्पैक्ट के वजह से मानसून में कमी आ सकती है और इसका कृषि पैदावार पर भी भारी असर हो सकता है. भारत में सिर्फ खेती करने वाले क्षेत्रों की बारिश पर निर्भरता करीब 52 फीसदी है. मानसून पर पूरी तरीके से निर्भर खेती देश के कुल खाद्य उत्पादन का लगभग 40 फीसदी है, जो देश के फूड सिक्योरिटी के लिए काफी महत्वपूर्ण है. अगर इसे सही से नहीं निपटा जाए मानसून में कमी के कारण कृषि पैदावार में कमी आएगी, जिससे कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी.
वैश्विक स्तर पर क्या होगा इसका असर?
एल-निनो कितना ताकतवर है वैज्ञानिक इसका अंदाजा ओसियन निनो इंडेक्स (ओएनआई) से लगाते हैं. इस इंडेक्स पर माप 0.5 से 0.9 के बीच आता है तो इसको कमजोर एल-निनो माना जाता है और 1 के उपर के माप को मध्यम एल-निनो माना जाता है. लेकिन अगर यही इंडेक्स 1.5 और 1.9 के बीच रहता है तो इसे एक मजबूत एल-निनो माना जाता है. एनओएए (NIO) ने इस बार 1.5 से अधिक के इंडेक्स की भविष्यवाणी कर दी है. द क्लाइमेट रियल्टी प्रोजेक्ट के इंडिया और साउथ एशिया ब्रांच के डायरेक्टर, आदित्य पुंडीर कहते हैं, "एल-निनो प्राकृतिक रूप से होने वाले वैश्विक मौसम पैटर्न का एक हिस्सा है जो हर 2 -7 साल में दोहराता है. यह आमतौर पर पेरू और चिली जैसे पश्चिमी अमेरिकी देशों के मौसम पैटर्न को प्रभावित करता है जो भारी वर्षा और बाद में बाढ़ का सामना करते हैं. इसके विपरीत इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया में होता है जो असामान्य रूप से शुष्क मौसम, कम बारिश और सूखे का सामना करते हैं."
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पहले भी भारत हो चुका है इससे प्रभावित
एल-निनो की वजह से भारत कई बार प्रभावित हो चुका है. पहले जब इसके वजह से कम वर्षा हुई थी तब सरकार को कुछ खाद्यान्नों के निर्यात को कम करना पड़ा था. कम बारिश की वजह से भारत में चावल, गेहूं, गन्ना, सोयाबीन और मूंगफली जैसी प्रमुख फसलें प्रभावित होते हैं. साल 2001 और 2020 के बीच, भारत को सात एल-निनो का सामना करना पड़ा है. इनमें से चार की वजह से सूखा (2003, 2005, 2009-10, 2015-16) पड़ा. इस दौरान खरीफ या गर्मियों में बोए गए कृषि उत्पादन में 16 फीसदी, 8 फीसदी, 10 फीसदी और 3 फीसदी की गिरावट देखी गई, जिससे इन्फ्लेशन काफी बढ़ा था.
भारत को क्या करने की है जरूरत?
केंद्रीय मौसम विभाग राज्यों को किसी भी प्रतिकूल स्थिति के लिए पहले से ही तैयार रहने के लिए कह चुका है. एचटी की एक रिपोर्ट के अनुसार, आईएमडी, इस साल मौसम पर नजर रखते हुए भारत के 700 जिलों में से प्रत्येक के लिए कृषि-मौसम संबंधी सलाहकार सेवाएं और फॉरकास्ट प्रदान करेगा. गौरतलब है कि भारत को इस स्थिती से निपटने के लिए कई कदम और उठाने होंगे. गोदरेज एंड बॉयस में एनवायरनमेंट सस्टेनबलिटी हेड तेजश्री जोशी का कहना है, "मौसम की भविष्यवाणी में सुधार, समय से पहले इसकी चेतावनी, जल संरक्षण को बढ़ावा देना, सूखा प्रतिरोधी फसलें और किसानों की क्रेडिट और बीमा विकल्पों तक पहुंच बढ़ाने से देश में जोखिम को काफी हद तक कम किया जा सकता है." वहीं, एग्री स्टार्टअप ग्रामिक (Gramik) के फाउंडर राज यादव का कहना है कि सब्सिडी पर फोकस सबसे ज्यादा जरूरी है. क्योंकि छोटे और सीमांत किसानों के पास उतने वित्तीय संसाधन नहीं होते हैं इसलिए सब्सिडी के बचे हुए पैसों का उपयोग वह सिंचाई और मशीनरी के इस्तेमाल आदि में कर सकते हैं, जिससे ग्रॉस प्रोडक्शन में बढ़ोतरी होगी और एल-निनो का इफेक्ट कम होगा.
El-Nino Impact: एल-निनो के दस्तक देने की आ रही है खबर, भारत के मानसून पर इसका क्या होगा असर, एक्सपर्ट कमेंट्स
El-Nino Impact: IMD ने कहा है कि इस मानसून में एल नीनो के विकसित होने की लगभग 70 फीसदी संभावना है.
El-Nino Impact: IMD ने कहा है कि इस मानसून में एल नीनो के विकसित होने की लगभग 70 फीसदी संभावना है.
El-Nino Impact: साल 1600 में अल नीनो का मामला पहली बार सामने आया था.
El-Nino Impact: इंडियन मेट्रोलोजिकल डिपार्टमेंट (IMD) ने एल-निनो (EL-Nino) को लेकर एक चेतावनी जारी की है. IMD ने कहा है कि इस मानसून में एल नीनो के विकसित होने की लगभग 70 फीसदी संभावना है. अगर IMD की बात सच साबित हुई तो देश के खरीफ उत्पादन पर इसका प्रभाव पड़ सकता है. पहले से ही इस बात का अनुमान लगाया जा रहा था कि इस साल मॉनसून देरी से शुरू हो सकता है और आने वाला दक्षिण-पश्चिमी मॉनसून इस बार छोटा हो सकता है. कई जानकार इसे एल-निनो के साथ भी जोड़ कर देख रहे हैं. अमेरिका के नेशनल ओसेनिक एंड एटमोस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) ने इस बात पर मुहर लगाईं है कि एल-निनो के बनने की उम्मीद 80-90 फीसदी है.
क्या होता है EL-Nino?
साल 1600 में एल-निनो का मामला पहली बार सामने आया था. आमतौर पर जब एक जगह से दूसरे जगह पर जाने वाली हवाएं कमजोर पड़ जाती हैं तब नीनो की स्थिथि बनती है. इसके वजह से से तापमान और बढ़ता है. इससे समुंद्र का तापमान भी 2-3 डिग्री तक बढ़ जाता है. इस घटना को ही एल- नीनो कहते हैं. मौसम के अलावा, इसका समुंद्री जीव-जन्तुओं पर भी असर पड़ता है. मछलियों की ढेरों प्रजातियां तापमान के इस बदलाव को सहन नहीं कर पाती हैं. कई बार कुछ जगहों पर इसका असर तुरंत दिखता है लेकिन कई जगहों पर इस प्रभाव देर से देखने को मिलता है. इसपर शारदा यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ एनवायरनमेंट साइंस के हेड ऑफ डिपार्टमेंट, प्रमोद के सिंह का कहना है कि वैश्विक तापमान पर एल-नीनो का प्रभाव तुरंत नहीं होता है बल्कि इसमें समय लगता है. नतीजतन, कुछ क्षेत्रों में इसके प्रभाव तुरंत नहीं देखे जा सकते हैं.
LIC IPO: एलआईसी आईपीओ के एक साल पूरे, शेयर खरीदें, बेचें या होल्ड करें?
भारतीय मानसून पर इसका कैसा होगा असर?
अल नीनो का मौसम पर नकारात्मक प्रभाव कई बार पड़ा है. इस बार अल नीनों की चेतावनी ने भारत की चिंता को बढ़ा दिया है. जानकार बताते हैं कि इसके इम्पैक्ट के वजह से मानसून में कमी आ सकती है और इसका कृषि पैदावार पर भी भारी असर हो सकता है. भारत में सिर्फ खेती करने वाले क्षेत्रों की बारिश पर निर्भरता करीब 52 फीसदी है. मानसून पर पूरी तरीके से निर्भर खेती देश के कुल खाद्य उत्पादन का लगभग 40 फीसदी है, जो देश के फूड सिक्योरिटी के लिए काफी महत्वपूर्ण है. अगर इसे सही से नहीं निपटा जाए मानसून में कमी के कारण कृषि पैदावार में कमी आएगी, जिससे कई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी.
वैश्विक स्तर पर क्या होगा इसका असर?
एल-निनो कितना ताकतवर है वैज्ञानिक इसका अंदाजा ओसियन निनो इंडेक्स (ओएनआई) से लगाते हैं. इस इंडेक्स पर माप 0.5 से 0.9 के बीच आता है तो इसको कमजोर एल-निनो माना जाता है और 1 के उपर के माप को मध्यम एल-निनो माना जाता है. लेकिन अगर यही इंडेक्स 1.5 और 1.9 के बीच रहता है तो इसे एक मजबूत एल-निनो माना जाता है. एनओएए (NIO) ने इस बार 1.5 से अधिक के इंडेक्स की भविष्यवाणी कर दी है. द क्लाइमेट रियल्टी प्रोजेक्ट के इंडिया और साउथ एशिया ब्रांच के डायरेक्टर, आदित्य पुंडीर कहते हैं, "एल-निनो प्राकृतिक रूप से होने वाले वैश्विक मौसम पैटर्न का एक हिस्सा है जो हर 2 -7 साल में दोहराता है. यह आमतौर पर पेरू और चिली जैसे पश्चिमी अमेरिकी देशों के मौसम पैटर्न को प्रभावित करता है जो भारी वर्षा और बाद में बाढ़ का सामना करते हैं. इसके विपरीत इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया में होता है जो असामान्य रूप से शुष्क मौसम, कम बारिश और सूखे का सामना करते हैं."
How to earn in falling market : बाजार की गिरावट में भी हो सकती है कमाई, अगर इनवेस्टमेंट स्ट्रैटजी हो सही
पहले भी भारत हो चुका है इससे प्रभावित
एल-निनो की वजह से भारत कई बार प्रभावित हो चुका है. पहले जब इसके वजह से कम वर्षा हुई थी तब सरकार को कुछ खाद्यान्नों के निर्यात को कम करना पड़ा था. कम बारिश की वजह से भारत में चावल, गेहूं, गन्ना, सोयाबीन और मूंगफली जैसी प्रमुख फसलें प्रभावित होते हैं. साल 2001 और 2020 के बीच, भारत को सात एल-निनो का सामना करना पड़ा है. इनमें से चार की वजह से सूखा (2003, 2005, 2009-10, 2015-16) पड़ा. इस दौरान खरीफ या गर्मियों में बोए गए कृषि उत्पादन में 16 फीसदी, 8 फीसदी, 10 फीसदी और 3 फीसदी की गिरावट देखी गई, जिससे इन्फ्लेशन काफी बढ़ा था.
भारत को क्या करने की है जरूरत?
केंद्रीय मौसम विभाग राज्यों को किसी भी प्रतिकूल स्थिति के लिए पहले से ही तैयार रहने के लिए कह चुका है. एचटी की एक रिपोर्ट के अनुसार, आईएमडी, इस साल मौसम पर नजर रखते हुए भारत के 700 जिलों में से प्रत्येक के लिए कृषि-मौसम संबंधी सलाहकार सेवाएं और फॉरकास्ट प्रदान करेगा. गौरतलब है कि भारत को इस स्थिती से निपटने के लिए कई कदम और उठाने होंगे. गोदरेज एंड बॉयस में एनवायरनमेंट सस्टेनबलिटी हेड तेजश्री जोशी का कहना है, "मौसम की भविष्यवाणी में सुधार, समय से पहले इसकी चेतावनी, जल संरक्षण को बढ़ावा देना, सूखा प्रतिरोधी फसलें और किसानों की क्रेडिट और बीमा विकल्पों तक पहुंच बढ़ाने से देश में जोखिम को काफी हद तक कम किया जा सकता है." वहीं, एग्री स्टार्टअप ग्रामिक (Gramik) के फाउंडर राज यादव का कहना है कि सब्सिडी पर फोकस सबसे ज्यादा जरूरी है. क्योंकि छोटे और सीमांत किसानों के पास उतने वित्तीय संसाधन नहीं होते हैं इसलिए सब्सिडी के बचे हुए पैसों का उपयोग वह सिंचाई और मशीनरी के इस्तेमाल आदि में कर सकते हैं, जिससे ग्रॉस प्रोडक्शन में बढ़ोतरी होगी और एल-निनो का इफेक्ट कम होगा.