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महंगाई डायन पर चलेगा ब्याज का चाबुक, मगर रिकवरी रुकी तो काबू में कैसे आएगा बेरोजगारी का दानव?

WPI Inflation On Record High: थोक कीमतों ने क्यों तोड़ा रिकॉर्ड, महंगाई के इस तीखे तेवर की वजह क्या है? कीमतों पर काबू पाने के लिए ब्याज बढ़ाना कहीं इकॉनमी पर भारी तो नहीं पड़ेगा?

WPI Inflation On Record High: थोक कीमतों ने क्यों तोड़ा रिकॉर्ड, महंगाई के इस तीखे तेवर की वजह क्या है? कीमतों पर काबू पाने के लिए ब्याज बढ़ाना कहीं इकॉनमी पर भारी तो नहीं पड़ेगा?

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Viplav Rahi
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Inflation vs Growth who will win

महंगाई पर काबू पाने के लिए ब्याज दरें बढ़ाने का बढ़ती बेरोजगारी पर क्या असर होगा? (Photo : Indian Express)

High Inflation : Cause and Effect : थोक महंगाई दर यानी होलसेल प्राइस इंडेक्स (WPI) के अप्रैल में 15.08 फीसदी तक पहुंचने के आंकड़े मंगलवार को सामने आए तो 17 साल का रिकॉर्ड टूट गया. मौसम की गर्मी को महंगाई की धूप और तीखा बना रही है, यह बात तो आंकड़ों के बिना भी समझ आती है. लेकिन थोक महंगाई के आंकड़े अगर डेढ़ दशक से ज्यादा के रिकॉर्ड तोड़ने लगें तो मन में सवाल उठने लाजमी हैं. सवाल ये कि आखिर कीमतों में लगी इस आग की वजह क्या है? और इस महंगाई और उस पर काबू पाने की कोशिशों का असर क्या होगा?

उठ रहे हैं कई अहम सवाल

महंगाई पर काबू पाने के लिए क्या रिजर्व बैंक ब्याज दरों में और बढ़ोतरी करेगा? अगर ऐसा हुआ तो आर्थिक रिकवरी की कोशिशों का क्या होगा? ग्रोथ का इंजन पटरी से उतरा तो बढ़ती बेरोजगारी को कम कैसे किया जा सकेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि कोरोना महामारी के कारण लगे लॉकडाउन ने देश की इकॉनमी पर दो साल पहले जो कहर ढाया था, उससे उबरने की उम्मीदों को महंगाई डायन निगल जाएगी?

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महंगाई के इस तीखे तेवर की वजह क्या है?

एक सीधा सवाल तो यही है कि महंगाई इतनी बढ़ क्यों रही है? कॉमर्स और इंडस्ट्री मिनिस्ट्री का कहना है कि अप्रैल में महंगाई बढ़ने के लिए मिनरल ऑयल, बेसिक मेटल्स, क्रूड पेट्रोलियम और गैस, खाद्य और गैर-खाद्य वस्तुएं, केमिकल और केमिकल प्रोडक्ट्स की कीमतों में हुई बढ़ोतरी जिम्मेदार है.

हाल के दिनों में इन चीजों की कीमतों में आई तेजी के लिए काफी हद तक रूस-यूक्रेन की जंग को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की रिसर्च टीम के दिग्गज अर्थशास्त्रियों ने भी सोमवार (16 मई) को जारी अपने विश्लेषण में दावा किया है कि फरवरी से अप्रैल के दौरान महंगाई जिस तेजी से बढ़ी है, उसमें 59 फीसदी कसूर रूस और यूक्रेन की लड़ाई का है. वैसे यह निष्कर्ष उन्होंने थोक महंगाई नहीं, बल्कि खुदरा महंगाई दर यानी कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (CPI) के आंकड़ों का विश्लेषण करके निकाला है. फिर भी इसे कई जानकार मोटे तौर महंगाई के पूरे रुझान से जोड़कर देख रहे हैं, फिर चाहे वो थोक हो या खुदरा. महंगाई के मसले को आसानी से समझने के लिए ऐसा किया भी जा सकता है, लेकिन यहां यह बात ध्यान में रखनी होगी कि अप्रैल में खुदरा महंगाई दर 7.79 फीसदी पर रही, तो थोक महंगाई उससे करीब दूनी ऊंचाई पर लहरा रही है.

रूस-यूक्रेन की जंग के पहले भी बढ़ रही थी महंगाई

एक बात यह भी समझने वाली है कि रूस और यूक्रेन की जंग फरवरी के अंतिम सप्ताह में शुरू हुई. यानी अप्रैल की महंगाई दर आने तक इस जंग को मुश्किल से 9 हफ्ते हुए थे. जबकि थोक महंगाई दर लगातार 13 हफ्ते से दो अंकों में बनी हुई है. यानी महंगाई का यह कहर यूक्रेन पर रूस से हमले से कहीं ज्यादा पुराना है. जाहिर है, महंगाई पर जंग का असर है तो जरूर, लेकिन यह इकलौता असर नहीं है. सप्लाई चेन से जुड़ी समस्याएं अर्थव्यवस्था के बड़े हिस्से में रूस के हमले के पहले से भी महसूस की जा रही थीं. यही बात पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स की कीमतों के बारे में भी कही जा सकती है. जंग ने उस बीमारी को और बढ़ा दिया है, जिससे देश पहले से जूझ रहा था.

गरीबों पर सबसे ज्यादा मार करेगी महंगाई

वजह की पड़ताल चलती रहेगी और उस पर जानकारों के अलग-अलग विश्लेषण भी सामने आते रहेंगे. लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि इस महंगाई का देश की इकॉनमी और आम लोगों पर असर क्या होगा? हालांकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण हाल ही में दावा कर चुकी हैं कि ये महंगाई न सिर्फ गरीबों को कम और अमीरों को ज्यादा सता रही है, बल्कि अमीरी-गरीबी की खाई पाटने का काम भी कर रही है. लेकिन उनका यह बयान महंगाई के मुद्दे पर दुनिया भर में दशकों से मान्य आर्थिक समझदारी से बिलकुल उलट है. यह बात अनेक बार साबित हो चुकी है कि महंगाई हमेशा गरीबों को ज्यादा परेशान करती है और भारत के मामले में भी यही सच है. दुनिया के जाने-माने निवेशक वॉरेन बफेट का बरसों पहले दिया ये बयान आज भी बार-बार याद दिलाया जाता है कि महंगाई आम लोगों पर लादा गया सबसे क्रूरतापूर्ण टैक्स है. इसकी सबसे स्पष्ट वजह यह है कि गरीब जनता अपनी लगभग पूरी आमदनी भोजन और जरूरत की दूसरी चीजों पर खर्च कर देती है. उसके पास पैसे बचाने की क्षमता न के बराबर होती है. जाहिर है जब चीजें महंगी होती हैं, तो उनकी पहले से तंग जेब और भी तंग हो जाती है. उनके पास महंगाई से निपटने के लिए बचत या ऊंचे रिटर्न वाले निवेश के तौर पर कोई 'बफर' नहीं होता. और जब महंगाई में बड़ा योगदान फूड इंफ्लेशन का हो, तब तो गरीबों के पेट पर उसकी लात पड़ना तय ही है, क्योंकि उनकी आमदनी का 60 फीसदी से अधिक हिस्सा भोजन पर ही खर्च हो जाता है.

ब्याज दरें, CRR और बढ़ने के आसार

लेकिन असर सिर्फ महंगाई का ही नहीं, उस पर काबू पाने की कोशिशों का भी होता है. महंगाई के बेकाबू होने के पूर्वानुमानों के बीच ही रिजर्व बैंक ने मई में अचानक इमरजेंसी बैठकर बुलाई और रेपो रेट को 40 बेसिस प्वाइंट बढ़ाकर 4.40 फीसदी और CRR को 50 बेसिस प्वाइंट बढ़ाकर 4.50 फीसदी कर दिया. लेकिन उसके बाद सामने आए महंगाई दर के आसमान छूते आंकड़ों ने इस संभावना को बढ़ा दिया है कि जून में होने वाली मॉनेटरी पॉलिसी की अगली समीक्षा में भी ब्याज दर एक बार फिर से बढ़ाई जा सकती है.

एसबीआई के अर्थशास्त्रियों की टीम का तो मानना है कि रिजर्व बैंक पहले जून और फिर अगस्त में भी ब्याज दर बढ़ाएगा. उनका अनुमान है कि अगस्त में रेपो रेट 5.15 फीसदी तक पहुंच सकती है. रेटिंग एजेंसी इक्रा की चीफ इकॉनमिस्ट अदिति नायर का अनुमान भी कुछ ऐसा ही है. उनका मानना है कि रिजर्व बैंक जून में एक बार फिर से रेपो रेट में 40 बेसिस प्वाइंट की बढ़ोतरी करेगा, जबकि अगस्त में इसे 35 बेसिस प्वाइंट और बढ़ाए जाने के आसार हैं. यानी उनके अनुमान के मुताबिक भी अगस्त में रेपो रेट 5.15 फीसदी तक पहुंचने की संभावना है.

ब्याज दरों में बढ़ोतरी का क्या होगा असर?

दुनिया भर के प्रमुख अर्थशास्त्रियों में लंबे अरसे से इस बात पर काफी हद तक सहमति रही है कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी आर्थिक विकास दर के लिए अच्छी नहीं होती. अपने देश की इकॉनमी को भी बरसों से इसी सोच के आधार पर चलाया जा रहा है. लेकिन कई अन्य आर्थिक परिस्थितियों के साथ मिलकर सस्ते कर्ज बहुत बार महंगाई बढ़ाने वाले भी साबित हो सकते हैं. इसी आशंका की वजह से अब रिजर्व बैंक महंगाई घटाने के लिए ब्याज दरें और सीआरआर बढ़ाने की राह पर बढ़ चला है.

विकास दर गिरी तो बेरोजगारी और विकराल नहीं होगी?

ऐसे में एक अहम सवाल यह है कि सस्ते कर्ज के आधार पर ग्रोथ में तेजी लाने की पुरानी रणनीति का अब क्या होगा? अगर ब्याज दरें बढ़ने की वजह से ग्रोथ का इंजन सुस्त पड़ा गया, तो क्या इससे इकनॉमिक रिकवरी खतरे में नहीं पड़ जाएगी? और अगर आर्थिक विकास दर पिछड़ी तो बेरोजगारी का दानव और विकराल नहीं हो जाएगा?

बेरोजगारी का यह दानव कितना भयानक हो गया है, इसका अंदाजा सीएमआईई (CMIE) के कुछ दिनों पहले जारी आंकड़ों से लगाया जा सकता है. इन आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल 2022 में देश में बेरोजगारी की दर बढ़कर 7.83 फीसदी हो चुकी थी. शहरों में तो बेरोजगारी की दर और भी ज्यादा रही : 9.22 प्रतिशत ! CMIE ने ही बताया है कि मार्च में देश की लेबर फोर्स में 38 लाख लोग कम हो गए. संस्था के मुताबिक इसकी मुख्य वजह यह है कि लाखों लोगों ने बेरोजगारी से निराश होकर अब काम की तलाश करना भी बंद कर दिया है. हालांकि सरकार इस दलील को सच नहीं मानती.

जाहिर है कि इन हालात में ब्याज दरें बढ़ने का असर अगर आर्थिक रिकवरी पर पड़ा, तो तमाम आशंकाओं के हकीकत में तब्दील होने का खतरा बढ़ जाएगा. लेकिन केंद्र सरकार ने हाल ही में जिस तरह सारी दुनिया का पेट भरने के अपने ही दावों से मुंह फेरकर अचानक गेहूं के एक्सपोर्ट पर पाबंदी लगाई, उससे साफ जाहिर है कि फिलहाल महंगाई के और बेकाबू होने से बड़ा तात्कालिक खतरा उसकी नजर में और कुछ भी नहीं है.

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