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क्यों शहरों में मंथली 1 लाख रुपये की इनकम अब पर्याप्त नहीं रही?

पहले 1 लाख रुपये महीने की कमाई अमीरी और सफलता की निशानी थी, लेकिन आज शहरों में महंगाई, बढ़ते खर्च और रुपये की घटती ताकत से यह रकम सिर्फ जरूरतों और थोड़ी सुविधाओं तक सीमित है.

पहले 1 लाख रुपये महीने की कमाई अमीरी और सफलता की निशानी थी, लेकिन आज शहरों में महंगाई, बढ़ते खर्च और रुपये की घटती ताकत से यह रकम सिर्फ जरूरतों और थोड़ी सुविधाओं तक सीमित है.

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Aanya Desai
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Financial Management AI Generated Image

हर महीने 1 लाख रुपये की कमाई के बावजूद तंगी का अहसास क्यों? Photograph: (AI Image)

मान लीजिए आपको जॉब ऑफर लेटर मिला मंथली 1 लाख रुपये का. सुनने में बड़ी बात लग रही होगी. कई सालों से यही आपका टारगेट था. इसका मतलब था कि अब आप उस प्रोफेशनल क्लास में हैं जो आराम से अच्छा घर किराए पर ले सकती है, वीकेंड ट्रिप्स कर सकती है और बाहर खाने पीने में बजट नहीं देखती लेकिन ज्वॉइन करने के 3 महीने बाद एहसास होता है कि कुछ गड़बड़ है. कमाई बाकी लोगों से ज्यादा है लेकिन बैंक बैलेंस वैसा नहीं दिख रहा. घर का किराया बड़ी कटौती कर लेता है. ऑनलाइन खाना ऑर्डर करना आदत बन जाता है. रोज कैब से आना जाना महंगा पड़ता है और बचत वो तो लगभग नाम की रह जाती है.

ये है आज के मेट्रो शहरों की नई मिडिल क्लास की हकीकत. खासकर मिलेनियल्स और जेनजी के लिए 1 लाख रुपये महीने की सैलरी सुनने में तो जैकपॉट लगती है लेकिन असल में खर्चों के आगे टिक नहीं पाती. महंगाई सैलरी बढ़ने की रफ्तार से तेज है शहरों में रहना दिन ब दिन महंगा हो रहा है और सोशल प्रेशर हमें हमेशा ज्यादा चाहने पर मजबूर करता है. न आप गरीब हैं न अमीर बस बीच में कहीं इतनी कमाई कि शिकायत न हो लेकिन इतना भी नहीं कि सुकून मिले.

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तो सवाल है जो रकम कभी सफलता की पहचान मानी जाती थी उसका असर अब क्यों फीका पड़ गया और क्यों 6 अंकों की सैलरी पाने वालों के लिए भी फाइनेंशियल सफलता अब दूर लगने लगी है. इस लेख में हम आंकड़ों और सोच दोनों के जरिए समझेंगे कि 2025 के भारत में 1 लाख रुपये महीने की सैलरी का असली मतलब क्या रह गया है

1. Lifestyle Inflation: कमाई बढ़ने के साथ खर्च भी बढ़ जाता है

मंथली 1 लाख रुपये की कमाई अब उतनी बड़ी रकम क्यों नहीं लगती, इसका एक बड़ा कारण है लाइफस्टाइल इंफ्लेशन. यानी जैसे ही आपकी कमाई बढ़ती है, वैसे ही आपका खर्चा भी बढ़ने लगता है.

पहले आप छोटे 1BHK में और घर का बना खाना खाकर खुश रहते थे. लेकिन मंथली  1 लाख मिलने के बाद आदतें बदल जाती हैं. बेहतर इलाके में रहना, महंगे OTT सब्सक्रिप्शन लेना, हर वीकेंड घूमने जाना, बाहर का खाना मंगाना और ऑनलाइन शॉपिंग करना रोजमर्रा की बात बन जाती है. आप खुद को समझाते हैं कि आप ये डिज़र्व करते हैं, लेकिन सच यह है कि आपकी कमाई जितनी बढ़ती है, खर्च भी उतना ही बढ़ता है, और बचत पीछे छूट जाती है.

धीरे-धीरे आप अपने पुराने जीवन से तुलना करना छोड़ देते हैं और उन लोगों से तुलना करने लगते हैं जो आपसे ज्यादा कमाते हैं या ज्यादा दिखाते हैं. इस उम्मीद और खर्च को बढ़ाने की दौड़ में आप वित्तीय रूप से सुस्त हो जाते हैं, भले ही पहले से ज़्यादा कमा रहे हों.

2. मेट्रो सिटी का सच: 1 लाख की सैलरी में भी नहीं मिलती लग्जरी, बस गुज़र-बसर

भारत के बड़े शहरों में रहना अब बहुत महंगा हो गया है. मुंबई या बेंगलुरु जैसे मेट्रो सिटी में तो किराया ही आपकी सैलरी का 30-50% खा जाता है.

मान लीजिए आप मुंबई में 1 लाख रुपये महीना कमा रहे हैं, तो खर्च कुछ ऐसा होगा –
किराया 35,000 रुपये
बिजली-पानी-इंटरनेट 3,500 रुपये
किराना और बाहर खाना 10,000 रुपये
आवागमन (फ्यूल, कैब, मेट्रो) 4,000 रुपये
सब्सक्रिप्शन और मनोरंजन 2,000 रुपये
कपड़े और पर्सनल केयर 3,000 रुपये
अन्य खर्च (गिफ्ट, इमरजेंसी) 5,000 रुपये
ईएमआई या क्रेडिट कार्ड पेमेंट 10,000 रुपये

इस तरह सेविंग या निवेश से पहले ही आपके पास सिर्फ 27,500 रुपये बचते हैं. यानी मेट्रो सिटी में 1 लाख रुपये महीना आपको स्थिरता देता है, आराम या लग्जरी नहीं.

वहीं, भोपाल या कोच्चि जैसे टियर-2 शहर में अगर आप 50,000 रुपये कमा रहे हैं तो शायद ज्यादा बचत कर पाएंगे, क्योंकि वहां किराया और सफर का खर्च काफी कम होता है और लाइफस्टाइल इंफ्लेशन भी कम होता है.

3. महंगाई ने बदल दी कीमत, 1 लाख की सैलरी अब पहले जितनी नहीं रही

मुद्रास्फीति का अर्थ यह है कि 1,00,000 रुपये की क्रय शक्ति अब उतनी नहीं है जितनी 10 साल पहले थी.

उदाहरण के लिए: 2013 में 1,00,000 रुपये की आय अधिकांश शहरों में किराए और रहने के खर्च के लिए पर्याप्त थी - जिससे थोड़ा निवेश या यात्रा की अनुमति मिल जाती थी.

प्रति वर्ष 6% की औसत मुद्रास्फीति दर का उपयोग करते हुए, 2013 से 1,00,000 रुपये, आज उसी जीवनशैली को बनाए रखने के लिए 2,00,000 रुपये के बराबर है.

जीवन की ज़रूरी चीज़ें, जैसे खाना, ईंधन, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा, काफ़ी बढ़ गई हैं. यहाँ तक कि बाहर खाना खाने जाना या घरेलू हवाई जहाज़ से सफ़र करना भी काफ़ी महंगा हो गया है. वेतन हर साल 6% से 8% के बीच बढ़ सकता है, लेकिन अक्सर क्रय शक्ति स्थिर रहती है या घटने के बराबर.

4. सोशल प्रेशर और इंस्टाग्राम लाइफस्टाइल

सोशल मीडिया और दिखावे की ज़िंदगी का असर हमारी जेब पर भी पड़ता है. इंस्टाग्राम और बाकी प्लेटफॉर्म पर हमें हर समय ऐसे लोग नज़र आते हैं जो महंगे रेस्टोरेंट में ब्रंच कर रहे हैं, छुट्टियां मना रहे हैं, नई कार खरीद रहे हैं या ब्रांडेड कपड़े पहन रहे हैं. देखने में लगता है जैसे सबके पास खूब पैसा है. नतीजा यह होता है कि हम अपनी ज़िंदगी को कमतर समझने लगते हैं.

ऐसे माहौल में कई बार लोग दूसरों की तरह दिखने के लिए “तुलना-प्रेरित खर्च” करने लगते हैं — चाहे उसके लिए उन्हें अपना बजट खींचना पड़े या कर्ज़ लेना पड़े. महंगा गैजेट खरीदना हो या ट्रेंडिंग छुट्टियां बिताना, हम ये सोचकर खर्च कर देते हैं कि बाकी सब भी तो कर रहे हैं.

असलियत में यह सिर्फ दिखावा होता है, और इसका असर हमारे असली आर्थिक हालात पर बुरा पड़ता है. रिसर्च भी बताती है कि मिडल-इनकम वाले शहरी मिलेनियल्स में पैसों को लेकर चिंता आम है, भले ही वे अच्छी सैलरी वाली नौकरी कर रहे हों. वजह यही है कि वे लगातार अपनी तुलना दूसरों से करते रहते हैं और महसूस करते हैं कि वे “काफी अच्छा” नहीं कर रहे.

5. 'लगभग आरामदायक' का मानसिक बोझ

1 लाख रुपये महीने की कमाई आपको एक अजीब सी स्थिति में डाल देती है, न इतनी कम कि सरकारी मदद मिल सके, न इतनी ज्यादा कि आसानी से बड़ी बचत या संपत्ति बनाई जा सके.

हमेशा मन में डर रहता है, नौकरी चली गई तो क्या होगा, कोई बड़ा इलाज करवाना पड़ा तो खर्च कैसे संभालेंगे. बस एक मुश्किल हालात जैसे परिवार में संकट, बड़ा खर्च या मंदी और आप इस मामूली स्थिरता से सीधे आर्थिक परेशानी में आ सकते हैं.

अगर आपके पास पर्याप्त इमरजेंसी फंड या अच्छी हेल्थ इंश्योरेंस नहीं है तो यह चिंता और बढ़ जाती है. नतीजा, आप हर समय पैसों को लेकर सोचते रहते हैं, बजट बनाते हैं, फैसलों पर शक करते हैं. आप गरीब नहीं हैं लेकिन पूरी तरह सुरक्षित भी नहीं और यही बीच की अनिश्चितता आपको कभी पूरी तरह सफल महसूस नहीं करने देती चाहे सैलरी कितनी भी अच्छी लगे.

6. वास्तविक अध्ययन भावनाओं का समर्थन करते हैं

मार्च 2025 में प्रकाशित एक लेख में, निवेश सलाहकार ने बैंगलोर के एक दंपति की कहानी साझा की , जो ₹2.4 लाख प्रति माह कमा रहे थे और केवल ₹15,000 की बचत कर रहे थे. यह दर्शाता है कि महानगरों में उच्च आय होना "वित्तीय स्वतंत्रता" के समान नहीं है. इसके मुख्य कारणों में महंगे आवास, भारी ईएमआई और जीवनशैली में लगातार वृद्धि शामिल है, जहाँ हर ₹10,000 वेतन वृद्धि के परिणामस्वरूप लगभग ₹7,000 का अतिरिक्त खर्च होता है.

एक अन्य मामले में, सलाहकार ने "40-30-30" नियम भी प्रस्तुत किया: आप जहां रहते हैं वहां 40% आवास, 30% बुनियादी आवश्यकताएं और लगभग 30% विवेकाधीन या बचत है - जबकि, टियर-2 शहर में, आप आमतौर पर अपने अनुपातों के साथ अधिक लचीले हो सकते हैं.

7. वित्तीय सफलता की पुनः संकल्पना

पहले महीने में 1 लाख रुपये कमाना मतलब होता था कि आप आर्थिक रूप से सफल हैं, लेकिन अब यह काफी नहीं है. महंगाई और बढ़ते खर्च के दौर में यह समझना जरूरी है कि सिर्फ कमाना ही काफी नहीं, बल्कि पैसे को सही तरह से संभालना भी उतना ही जरूरी है, ताकि आरामदायक जिंदगी और आर्थिक सुरक्षा बनी रहे.

आज के समय में असली आर्थिक सफलता का मतलब है — सोच-समझकर बचत और निवेश करना, इमरजेंसी फंड रखना, बीमा करवाना, कर्ज को काबू में रखना और लंबे समय तक संपत्ति बनाना. सबसे बढ़कर, यह मन की शांति देता है. असली सफलता सिर्फ कमाई में नहीं, बल्कि उसे बचाने, बढ़ाने और सुरक्षित रखने में है.

समाधान

अगर आप महीने में 1 लाख रुपये कमा रहे हैं, फिर भी पैसों की तंगी महसूस हो रही है, तो यह हमेशा ऐसे नहीं रहना चाहिए. फर्क तभी आएगा जब आप सिर्फ खर्च करने की बजाय पैसों को समझदारी से मैनेज करेंगे.

सबसे पहला कदम — कमाई का कम से कम 20–30% शुरुआत में ही बचत या निवेश में डाल दें. इसके लिए ऑटोमैटिक SIP शुरू करें और 4–6 महीने के खर्च के बराबर इमरजेंसी फंड बनाएं, साथ ही जरूरी बीमा लें. यह आपको सुरक्षा और मानसिक सुकून देगा.

फिर देखें कि आपका पैसा कहां बह रहा है — जैसे सब्सक्रिप्शन, बाहर का खाना, बेवजह की खरीदारी. इन फालतू खर्चों को घटाएं. अनावश्यक कर्ज से बचें, खासकर क्रेडिट कार्ड या ज्यादा ब्याज वाले EMI से. बचा हुआ पैसा ऐसे निवेश में लगाएं जो समय के साथ बढ़े, जैसे म्यूचुअल फंड या दूसरी मूल्य बढ़ाने वाली संपत्तियां.

और सबसे जरूरी — सोशल मीडिया के दिखावे में न फंसें. अमीर दिखना और आर्थिक रूप से सुरक्षित होना, दोनों अलग बातें हैं. असली सफलता इस बात में है कि आप कितना पैसा बचाते हैं, बढ़ाते हैं और सुरक्षित रखते हैं.

नोट : लेखिका अपनी प्राइवेसी बनाए रखने के लिए काल्पनिक नाम "आन्या देसाई" का इस्तेमाल करती हैं. लेकिन यह प्रोफाइल उनकी असली जानकारी और काम को दिखाता है.

आन्या देसाई को एक प्रोफेशनल फाइनेंशियल जर्नलिस्ट और कंटेंट राइटर के तौर पर पर्सनल फाइनेंस पर लिखने का 5 साल से ज्यादा का अनुभव है. वे पर्सनल बजटिंग, टैक्स प्लानिंग, म्यूचुअल फंड और लॉन्ग टर्म वेल्थ मैनेजमेंट जैसे मुश्किल आर्थिक विषयों को खासतौर पर भारतीय पाठकों को आसान भाषा में समझाने का काम करती हैं.

Note: This content has been translated using AI. It has also been reviewed for accuracy. 

To read this article in English, click here.

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