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RLLR vs MCLR: लोन लेने से पहले समझ लें दोनों का फर्क, ईएमआई बचाने में मिलेगी मदद

लोन लेने के पहले यह जानना जरूरी है कि जो पैसे आप कर्ज ले रहे हैं, उसे रेपो रेट लिंक्ड लोन रेट से चुकाना होगा या मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड बेस्ड लेंडिंग रेट से. ऐसे में कर्ज लेने से पहले इन दोनों रेट के फर्क को जरूर समझ लेना चाहिए.

लोन लेने के पहले यह जानना जरूरी है कि जो पैसे आप कर्ज ले रहे हैं, उसे रेपो रेट लिंक्ड लोन रेट से चुकाना होगा या मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड बेस्ड लेंडिंग रेट से. ऐसे में कर्ज लेने से पहले इन दोनों रेट के फर्क को जरूर समझ लेना चाहिए.

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FE Hindi Desk
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RLLR vs MCLR know Here How These Two Home Loan Interest Rate Terms Differ

एमसीएलआर पर कर्ज लेने का फायदा तब है जब आपको लगता है कि रेपो रेट में बढ़ोतरी हो सकती है. (Image- Pixabay)

RLLR vs MCLR: केंद्रीय बैंक आरबीआई (RBI) ने पिछले दो महीने में रेपो रेट को 0.90 फीसदी बढ़ा दिया है और अब इसकी दर 4.90 फीसदी है. रेपो रेट में बढ़ोतरी के बाद बैंकों से घर,कार या अन्य जरूरतों के लिए लोन लेना महंगा हो चला है लेकिन सभी पर यह तुरंत असर नहीं डालता है. सभी लोन ग्राहकों पर रेपो रेट में बढ़ोतरी का असर बराबर क्यों नहीं होता है, इसकी वजह लोन रेट किस फैक्टर यानी रेपो रेट या फंड की मार्जिनल कॉस्ट, दोनों में से किससे जुड़ी है, इस पर डिपेंड करता है. इसका मतलब हुआ कि आपको लोन लेने के पहले यह जानना जरूरी है कि जो कर्ज आप ले रहे हैं, उसे रेपो रेट लिंक्ड लोन रेट (RLLR) से चुकाना होगा या मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड बेस्ड लेंडिंग रेट (MCLR) से. ऐसे में लोन लेने से पहले इन दोनों टर्म के बारे में जरूर जान लेना चाहिए.

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दोनों का क्या है मतलब?

नाम के अनुरूप ही रेपो रेट लिंक्ड रेट केंद्रीय बैंक आरबीआई द्वारा तय किए गए रेपो रेट से जुड़ा होता है और इसे समय-समय पर संशोधित किया जाता है. सभी बैंकों का आरएलएलआर अलग-अलग होता है. जब भी रेपो रेट बदलता है तो यह बदलता है. वहीं दूसरी तरफ मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड बेस्ड लेंडिंग रेट वह दर है जिससे कम पर आप बैंक से कर्ज नहीं ले सकते हैं. इसे आरबीआई के गाइडलाइंस के हिसाब से सेट किया जाता है और इसमें सालाना या छमाही आधार पर संशोधित किया जाता है.

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RLLR vs MCLR

  • बेंचमार्क लिंकिंग: आरएलएलआर आरबीआई के रेपो रेट से जुड़ा एक्सटर्नल बेंचमार्क है जिसका मतलब हुआ कि रेपो रेट में बदलाव होते ही यह भी बदलेगा. इसमें पारदर्शिता अधिक होती है. वहीं दूसरी तरफ एमसीएलआर इंटरनल बेंचमार्क है जिसमें बैंक अपनी फंड लागत के हिसाब से ब्याज दर तय करता है. इसे तय करने में न सिर्फ रेपो रेट बल्कि बैंकिंग सिस्टम लिक्विडिटी. लो कॉस्ट डिपॉजिट्स इत्यादि की भी भूमिका होती है.
  • रीसेट पीरियड: आरएलएलआर के मामले में रीसेट पीरियड तीन महीना है यानी कि ईएमआई हर तीन महीने पर संशोधित हो सकती है. वहीं दूसरी तरफ एमसीएलआर के केस में रीसेट पीरियड छह महीने या एक साल है यानी कि बैंक छमाही या सालाना आधार पर अपनी ब्याज दर संशोधित करते हैं जिससे आपके कर्ज की ईएमआई बदलने में अच्छा-खासा गैप रहता है.
  • ट्रांसमिशन रेट: आरएलएलआर के मामले में आरबीआई के रेट कट का फायदा आपको तुरंत मिलता है लेकिन एमसीएलआर के केस में इसका फायदा थोड़ी देर से मिलता है.

अभी भी है कंफ्यूजन?

आरएलएलआर और एमसीएलआर में फर्क जानने के बाद भी आपको उलझन हो रही है तो अपने कर्ज के रेट टाइप्स का फैसला ऐसे ले सकते हैं. आरएलएलआर में आपको अधिक पारदर्शिता मिलेगी और जब भी रेपो रेट में कटौती होगी तो इसका फायदा तुरंत आपको मिलेगा. वहीं दूसरी तरफ एमसीएलआर पर कर्ज लेने का फायदा तब है जब आपको लगता है कि रेपो रेट में बढ़ोतरी हो सकती है.

(इनपुट: कोटक सिक्योरिटीज)

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