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कॉर्पोरेट मजदूरी से बेहतर डेयरी फार्मिंग, 8 भैंसों से मंथली कमाई 85000 रुपये, वायरल पोस्ट ने दिखाया रास्ता

corporate slavery vs Dairy farming: एक वायरल पोस्ट में कहा गया है कि कंपनी की नौकरी छोड़कर भैंस पालना ज्यादा फायदेमंद है. इस बात को लेकर इंटरनेट पर खूब चर्चा हो रही है. कई लोगों ने अपनी सच्ची कहानियां भी शेयर की हैं.

corporate slavery vs Dairy farming: एक वायरल पोस्ट में कहा गया है कि कंपनी की नौकरी छोड़कर भैंस पालना ज्यादा फायदेमंद है. इस बात को लेकर इंटरनेट पर खूब चर्चा हो रही है. कई लोगों ने अपनी सच्ची कहानियां भी शेयर की हैं.

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FE Hindi Desk
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dairy farming vs corporate slavery

Dairy farming vs corporate slavery: सोशल मीडिया पर वायरल हो रही तस्वीर. (Image: X/@CVAgro)

Diary Farming Better Than Corporate Slavery: क्या वाकई गांव की गोशाला, शहर के कॉर्पोरेट टावरों से बेहतर है? क्या ‘डेयरी फार्मिंग’ सच में ‘कॉर्पोरेट मजदूरी’ से बेहतर है? हाल ही में सोशल मीडिया पर वायरल हुई एक पोस्ट ने इसी सवाल को लाखों लोगों की चर्चा का विषय बना दिया. इस पोस्ट ने न सिर्फ नौकरीपेशा लोगों की सोच को झकझोरा, बल्कि देसी कमाई के नए रास्तों पर भी सोचने को मजबूर कर दिया.

कॉर्पोरेट मजदूरी से बेहतर डेयरी फार्मिंग कैसे?

खुद को 'Proud Indian' बताने वाले एक सोशल मीडिया यूजर @themayurchouhan ने एक्स (X) पर एक ऐसा अनुभव साझा किया, जिसने लोगों के दिलचस्पी जगा दी. उन्होंने अपने पिता के डेयरी फार्म का जिक्र करते हुए बताया कि कैसे डेयरी फार्मिंग कॉर्पोरेट मजदूरी से कहीं बेहतर है. एक्स पर किए पोस्ट का तर्जुमा कुछ यूँ है. शहर की तेज़ रफ्तार, ट्रैफिक की चिल्ल-पौं और ऑफिस की रोज़ की जद्दोजहद से थककर एक शख्स ने फैसला किया कि अब बहुत हुआ, थोड़ा सुकून चाहिए. और वो लौट चला अपने गांव, अपने बचपन की मिट्टी की खुशबू और खेतों की हरियाली की ओर. वहां पहुंचते ही सबसे पहले अपने पापा के डेयरी फार्म पर गया.

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फार्म पर 8 हट्टी-कट्टी भैंसें थीं, और हर एक रोज़ करीब 8 लीटर दूध देती है. यानी कुल 64 लीटर दूध हर दिन. अब उसने थोड़ा हिसाब लगाया. अगर बाजार में दूध 60 रुपये लीटर बिकता है, तो रोजाना कमाई करीब 3,840 रुपये, और महीने भर की कुल कमाई लगभग 1,15,200 रुपये बनती है. खर्चा-पानी निकाल भी दें, जैसे चारा, देखभाल वगैरह, तो करीब 30 से 40 हजार रुपये हर महीने खर्च होते हैं. फिर भी हाथ में 70 से 85 हजार रुपये की बचत रह जाती है. वो भी बिना किसी बॉस की झिड़की, मीटिंग की भागदौड़ और ओवरटाइम की नींद उड़ाने वाली जिंदगी के. और फिर उसने मुस्कुराते हुए एक्स पोस्ट में कहा डाला - भई, ये भैंसों वाली जिंदगी, कॉर्पोरेट मजदूरी से तो लाख गुना बेहतर है.

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कॉर्पोरेट मजदूरी बनाम डेयरी फार्मिंग वाले इस पोस्ट के सामने आने के बाद इंटरनेट यूजर्स के बीच बहस छिड़ गई है. कुछ यूजर्स ने इसे मजाकिया लहजे में लिया को कुछ ने भीरता से लेते हुए अपनी कहानी बयां की. कईयों ने सवाल भी खड़े किए - क्या यह सब इतना आसान है जितना पोस्ट में दिखाया गया?

बहस का असली मोड़ तब आया जब कई यूजर्स ने डेयरी फार्मिंग की जमीनी सच्चाइयों को सामने रखा. एक यूज़र ने लिखा कि सभी भैंसें पूरे साल एक जैसी मात्रा में दूध नहीं देतीं और उनमें 'ड्राई पीरियड' भी आता है. साथ ही, चारा, पानी, दवाएं, और मजदूरों पर हर महीने होने वाला खर्च 90,000 रुपये तक जा सकता है, जिससे फायदे की जगह घाटा हो सकता है.

एक और अहम मोड़ तब आया जब यह सामने आया कि 2025 के इनकम टैक्स बिल के तहत अब डेयरी फार्मिंग से होने वाली आमदनी भी टैक्स के दायरे में आ गई है. यानी अब यह ‘टैक्स फ्री इनकम’ नहीं रही.

एक शहरी यूजर्स ने एक और अहम पहलू जोड़ते हुए कहा - गांव की असल जिंदगी. एक यूजर ने लिखा, “गांव में रहना सिर्फ एक हफ्ते तक ही सुकून देता है, लेकिन असल में यह काम बहुत मेहनत और जोखिम भरा होता है. आज की यंग जनरेशन पूरी जिंदगी गांवों रहकर बिताना नहीं चाहती.” हालांकि, हर तस्वीर के दो पहलू होते हैं.

व्यक्ति ने लिखा - आज के दौर में गांवों में रहना और काम करना युवाओं के लिए मुश्किल है. गांव में ज़्यादातर काम मजदूरी वाले हैं, और डेयरी फार्मिंग जैसे छोटे स्तर के काम मेहनत भरे होते हैं और उनमें जोखिम भी बहुत होते हैं. मवेशियों की देखभाल के लिए सहायकों को रखना भी सभी के बस की बात नहीं.

इसके अलावा सोशल मीडिया पर इस बात पर बहस भी छिड़ी रही कि क्या डेयरी से कमाई टैक्स के दायरे में आती है या नहीं. लेकिन अब यह साफ हो गया है कि 2025 के आयकर विधेयक के अनुसार, डेयरी फार्मिंग से होने वाली आय अब पूरी तरह टैक्स योग्य है और इसे कृषि आय नहीं माना जाएगा.

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Diary Farming : क्या है जमीनी हकीकत?

बिहार के दिलीप कुमार की कहानी इस बात की मिसाल है कि अगर लगन हो तो डेयरी से एक मजबूत व्यवसाय खड़ा किया जा सकता है. शहर की नौकरी छोड़कर उन्होंने सिर्फ छह पशुओं से शुरुआत की और आज उनके पास 40 उन्नत नस्ल की गायें हैं, एक दूध संग्रह केंद्र है, और लाखों की कमाई हो रही है. उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) से मिलियनेयर किसान पुरस्कार (Millionaire Farmer Award) भी मिल चुका है. उनका मानना है कि अगर पशु स्वास्थ्य, प्रबंधन और बाजार की समझ हो, तो डेयरी एक टिकाऊ और फायदे वाला काम बन सकता है.

वहीं, कर्नाटक के किसान एक और पहलू बताते हैं. वहां दूध की लागत और दाम में बहुत कम अंतर है. कई किसान जैसे कि एसके रमेश बताते हैं कि उन्हें दूध बेचने से बहुत कम मुनाफा होता है. रोज़ाना के खर्च, मजदूरों की तनख्वाह, चारा, पानी और बिजली के बिल मिलाकर बचत मुश्किल होती है. रमेश कहते हैं कि दूध की कीमत कम से कम 55 रुपये प्रति लीटर होनी चाहिए, तभी किसान सही कमाई कर पाएंगे. उनका तर्क है कि केएमएफ (KMF) जैसी सहकारी संस्थाएं भी किसानों की ज़्यादा मदद नहीं कर पा रहीं. मुनाफा धीरे-धीरे आता है, और जैसे-जैसे गायें बूढ़ी होती हैं, दूध की मात्रा भी कम हो जाती है - पर खर्च वही रहता है.

कहानी का सार मर्म ये है कि डेयरी फार्मिंग में मुनाफा जरूर हो सकता है, लेकिन यह सब इतना आसान नहीं. इसमें मेहनत और संयम से काम लेने, ज्यादा समय देने के अलावा और जोखिम भी है. अगर संसाधन, जानकारी और सही नीति का साथ हो, तभी यह एक सशक्त विकल्प बन सकता है - नहीं तो कॉर्पोरेट नौकरी भले थकाए, पर कम से कम महीने की सैलरी तय रहती है.

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