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क्या 40 में रिटायर होना वाकई सही है? जानिए दूसरी तस्वीर. (AI Image)
इन दिनों फायर (FIRE) यानी फाइनैंशल इंडिपेंडेंस, रिटायर अर्ली (Financial Independence, Retire Early) को लेकर युवाओं में जबरदस्त उत्साह देखा जा रहा है. इसका मतलब है आर्थिक रूप से इतनी तैयारी कर लेना कि आप कम उम्र में, यानी 40 के आस-पास, नौकरी से रिटायर हो सकें. बहुत से युवा प्रोफेशनल्स के लिए यह किसी सपने जैसा लगता है — खर्च कम करना, समझदारी से निवेश करना, और एक ऐसी ज़िंदगी जीना जिसमें पैसे आपकी ज़रूरतें पूरी करें और आप आराम से उस वक्त काम से अलग हो सकें जब बाकी लोग अभी करियर की दौड़ में लगे होते हैं.
यह ट्रेंड अब सिर्फ एक सीमित समूह तक नहीं रहा. इंटरनेट पर हजारों ब्लॉग, पॉडकास्ट और सोशल मीडिया पेज इस फायर मूवमेंट को समर्पित हैं. सिर्फ Reddit पर ही “Financial Independence” फोरम के बीस लाख से ज़्यादा सदस्य हैं, और “FIRE movement” शब्द की गूगल सर्च बीते पांच सालों में तीन गुना बढ़ गई है. भारत में भी 30 प्रतिशत शहरी मिलेनियल्स मानते हैं कि वे 50 साल से पहले रिटायर होना चाहते हैं.
इस विचार के पीछे सोच बहुत सीधी और असरदार है. कम में जीना, बाकी पैसे निवेश करना, और धीरे-धीरे उस मुकाम तक पहुंचना जहां आपके पैसे ही आपकी ज़िंदगी का खर्च उठा सकें. सोचिए, अगर आप 30 या 40 की उम्र में ही रिटायर होकर बिना किसी कामकाजी दबाव के ज़िंदगी जी सकें, तो यह कितना सुकून देने वाला ख्याल लगता है.
ऐसे समय में जब आपके दोस्त ऑफिस कॉल्स, टारगेट्स और प्रमोशन की दौड़ में लगे हों और आप वीकडे में किसी कैफे में बैठकर सुकून की चाय पी रहे हों, तो इसमें एक अलग ही आत्मसंतोष और गर्व महसूस होता है. यही सोच लोगों को अपनी ओर खींचती है. मैंने भी कई बार खुद को इस ख्याल में खोया पाया है कि क्या हो अगर मैं 40 की उम्र में ही काम छोड़ दूं?
लेकिन फिर मन में एक और सवाल उठता है — क्या हम वाकई समझते हैं कि हम किस ‘आज़ादी’ का पीछा कर रहे हैं? यहीं से इस सोच की परतें खुलनी शुरू होती हैं और मामला थोड़ा पेचीदा हो जाता है.
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गणित काम कर सकता है, लेकिन विचार नहीं
जब लोग FIRE यानी Financial Independence, Retire Early की बात करते हैं, तो ज़्यादातर बातें आंकड़ों के इर्द-गिर्द ही होती हैं. जैसे अपनी आमदनी का 50 प्रतिशत बचाओ, सालाना खर्च का 25 गुना जमा करो और हर साल सिर्फ 4 प्रतिशत निकालो. इस गणित को मानें तो जल्दी रिटायरमेंट संभव लगता है. कुछ लोग इस लक्ष्य को हासिल भी कर लेते हैं. वे एक बड़ा फंड बनाते हैं, नौकरी छोड़ते हैं और उन्हें वो समय मिल जाता है जिसकी उन्हें हमेशा से तलाश थी.
शुरुआत में सब कुछ सपने जैसा लगता है. घूमना, आराम करना, एक तरह का आत्मसंतोष होता है कि आपने कुछ बड़ा कर लिया. लेकिन कुछ ही हफ्तों में धीरे-धीरे एक अजीब सा खालीपन आने लगता है. ऐसा लगता है जैसे घड़ी देखने की जरूरत ही नहीं रही, और समय कुछ अलग ही तरह से खिंचने लगा है. यहीं से असली चुनौती शुरू होती है — मन की.
असल में, काम सिर्फ कमाई का ज़रिया नहीं होता. यह आपकी पहचान बनाता है, आपके दिन को एक रूपरेखा देता है और दिमाग को एक दिशा. भले ही काम कभी-कभी थकाने वाला हो, लेकिन ये हमें प्रतिक्रिया, चुनौती और प्रगति का एहसास देता है, जो हमारे मन-मस्तिष्क के लिए जरूरी है. इनके बिना कई लोग — जिनमें मैं खुद भी शामिल हूं — ऊर्जा, ध्यान और आत्म-मूल्य में गिरावट महसूस करते हैं.
मनोवैज्ञानिक इसे 'एराइवल फॉलसी' कहते हैं. यानी हम सोचते हैं कि किसी लक्ष्य को पाकर हमें खुशी मिल जाएगी, लेकिन जब वैसा नहीं होता तो हम खुद को उलझा हुआ पाते हैं. जल्दी रिटायरमेंट भी कई बार ठीक ऐसा ही अहसास देता है. मंज़िल तो मिल जाती है, लेकिन मन में सवाल बाकी रह जाते हैं.
इसलिए भले ही आंकड़े आपके पक्ष में हों, लेकिन उस ज़िंदगी को महसूस करना, जी पाना और समझ पाना — ये सब पहले से प्लान कर पाना उतना आसान नहीं होता.
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फैसला लेने से पहले एक बार जरूर आज़माएं
अगर आप जल्दी रिटायरमेंट लेने की सोच रहे हैं, तो बेहतर होगा कि उस ज़िंदगी को पूरी तरह अपनाने से पहले एक बार उसे आज़मा कर देखें. यानी जैसा जीवन आप FIRE के बाद जीने की कल्पना कर रहे हैं, वैसा ही कुछ महीनों तक असल में जीकर देखिए. कुछ समय के लिए एक छोटा सा मिनी-रिटायरमेंट लीजिए, जिसमें आप बिना अलार्म के उठें, वही काम करें जो रिटायरमेंट के बाद करने की सोचते हैं, और दिन को उसी तरह बिताएं जैसा आप आगे चाहते हैं.
इस तरीके को समर्थन देने वाले शोध भी मौजूद हैं. हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू की एक रिपोर्ट बताती है कि जो प्रोफेशनल्स सोच-समझकर कुछ महीने की लंबी छुट्टी लेते हैं, उन्हें बाद में जीवन को लेकर गहरी स्पष्टता मिलती है. वे तरोताज़ा होकर लौटते हैं, जीवन को नए नजरिए से देखते हैं और करियर व भविष्य से जुड़े बेहतर निर्णय ले पाते हैं.
अगर संभव हो तो दो या तीन महीने की छुट्टी लेकर वैसे ही जीवनशैली अपनाएं जैसी आप जल्दी रिटायरमेंट के बाद अपनाना चाहते हैं. फिर खुद से यह सवाल पूछें — क्या दिन में इतना खाली समय पाकर आपको सुकून मिल रहा है या आप खुद को भटका हुआ महसूस कर रहे हैं? क्या मन शांत है या बेचैन? ऊर्जा बढ़ रही है या कम हो रही है?
ज्यादातर FIRE से जुड़ी गाइड सिर्फ पैसों की बचत और निवेश पर ध्यान देती हैं, लेकिन इस तरह का ट्रायल आपको एक ऐसा मानसिक अनुभव देता है जो आंकड़ों से नहीं समझा जा सकता. आप जान पाते हैं कि क्या आज़ादी की यह सोच वाकई आपके स्वभाव, पहचान और जीवन की गति के साथ मेल खाती है या नहीं.
जब आप आर्थिक रूप से आज़ाद हो जाते हैं, तो आपके पास चुनाव की आज़ादी होती है. तब आप बिना नौकरी छोड़े भी अपने प्लान को परख सकते हैं, सुधार सकते हैं और जब तैयार हों तभी रिटायरमेंट की ज़िंदगी को अपना सकते हैं. यह रास्ता आपको अंदाज़े के बजाय सच में सोच-समझकर फैसला लेने का मौका देता है.
क्या अर्ली रिटायरमेंट है सच्ची आजादी?
मैं FIRE के खिलाफ नहीं हूं. बल्कि मैं उन लोगों का सम्मान करता हूं जो अपनी कमाई और खर्चों पर नियंत्रण रखते हैं, लंबी अवधि के लिए अच्छी आदतें बनाते हैं और अपनी ज़िंदगी अपने तरीके से जीना चाहते हैं. लेकिन समय के साथ मैंने ये महसूस किया है कि आर्थिक आज़ादी सिर्फ एक्सेल शीट के उन आंकड़ों तक सीमित नहीं होती, जो आप और मैं बनाते हैं. असली आज़ादी इस बात से भी जुड़ी होती है कि आपका एक दिन कैसा बीतता है, सुबह उठने पर मन कैसा लगता है और क्या आप वह कर रहे हैं जो आपके लिए वाकई मायने रखता है.
समय के साथ ऐसा लगने लगा है कि FIRE एक मंज़िल बन गई है. लेकिन ज़िंदगी कोई ऐसा प्रोजेक्ट नहीं है जो 40 की उम्र में पूरा हो जाए. बहुत बार असली ज़िंदगी तो वहीं से शुरू होती है. अगर आप बिना सोचे-समझे सिर्फ इसलिए काम से हटते हैं क्योंकि आप अब आर्थिक रूप से आज़ाद हैं, लेकिन ये नहीं जानते कि दिन भर क्या करेंगे, ऊर्जा कहां से आएगी और मन किससे जुड़ेगा, तो वही आज़ादी भी भारी लगने लगती है.
मैंने ऐसे लोगों से बात की है जो FIRE तक पहुंचे लेकिन फिर भी खुद को खाली और बेचैन महसूस किया. वहीं कुछ लोग ऐसे भी मिले जिन्होंने कभी जल्दी रिटायरमेंट का सपना नहीं देखा लेकिन फिर भी संतुलित और खुशहाल जीवन जी रहे हैं. फर्क सिर्फ पैसों का नहीं था, फर्क सोच का था.
इसलिए अगर आप भी इस रास्ते पर हैं, तो थोड़ी देर रुककर अपने आप से एक सवाल जरूर पूछिए — मैं असल में किस चीज़ की तलाश में हूं? क्या मैं किसी ऐसी दिशा में बढ़ रहा हूं जो मुझे जोश से भर देती है या फिर सिर्फ किसी थकान और बोझ से भाग रहा हूं?
क्योंकि लंबी दूरी में सिर्फ काम से छुटकारा मिलना ही सुकून नहीं देता. असली सुकून तब आता है जब आप एक ऐसी ज़िंदगी बना पाएं जिसका हर दिन आप बेसब्री से इंतज़ार करें. जहां समय, ऊर्जा और फैसले आपके हाथ में हों और वो सब कुछ तब भी मायने रखें जब शुरुआती उत्साह थोड़ा कम हो जाए.
मेरे लिए तो यही है असली आज़ादी.
नोट : इस लेख में जो जानकारी दी गई है, वह फंड रिपोर्ट्स, इंडेक्स के पुराने आंकड़ों और पब्लिक डाटा पर आधारित है. विश्लेषण और उदाहरण समझाने के लिए हमने कुछ अपनी कल्पनाएं और अंदाज़े भी लगाए हैं.
इस लेख का मकसद सिर्फ आपको निवेश से जुड़ी जानकारी, आंकड़े और सोचने लायक बातें देना है. यह किसी तरह की निवेश सलाह नहीं है. अगर आप यहां बताई गई किसी भी बात पर निवेश करना चाहते हैं, तो पहले किसी योग्य वित्तीय सलाहकार से सलाह जरूर लें. यह लेख केवल जानकारी और शिक्षा के उद्देश्य से लिखा गया है. इसमें व्यक्त किए गए विचार पूरी तरह मेरे निजी हैं और मेरे किसी भी वर्तमान या पूर्व नियोक्ता से जुड़े नहीं हैं.
पार्थ पारिख को वित्त और अनुसंधान के क्षेत्र में एक दशक से ज़्यादा का अनुभव है. फिलहाल वे फिन्सायर (Finsire) में ग्रोथ एंड कंटेंट स्ट्रैटजी के प्रमुख हैं, जहां वे इनवेस्टर एजुकेशन के अलावा बैंकों व फिनटेक कंपनियों के लिए लोन अगेंस्ट म्यूचुअल फंड्स (LAMF) और फाइनेंशियल डेटा सॉल्यूशंस जैसे प्रोडक्ट्स पर काम करते हैं.
Note: This content has been translated using AI. It has also been reviewed for accuracy.
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