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जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर, पटना की गद्दी पर नज़रें टिकाए हुए.
“बिहार में बहार है, नितीशे कुमार है” से लेकर “अबकी बार मोदी सरकार” तक,
“अच्छे बीते 5 साल, लगे रहो केजरीवाल” से लेकर “दीदी के बोलो” ममता बनर्जी के लिए,
और “हल्के विच कैप्टन” अमरिंदर सिंह से लेकर “जगनन्ना के नवरत्नालु” जगन मोहन रेड्डी तक —
ये तमाम लोकप्रिय नारे और कैंपेन एक ही दिमाग की उपज हैं.
यह दिमाग किसी बड़े राजनेता का नहीं, बल्कि एक आम इंसान का है. और, ये हैं प्रशांत किशोर (Prashant Kishor), जिन्हें पूरा देश आज पीके के नाम से जानता है. कभी पर्दे के पीछे रहकर रणनीति बनाने वाला यह व्यक्ति आज भारतीय राजनीति का सबसे असरदार चेहरा बन गया है.
रणनीतिकार से नेता बनने की तैयारी में प्रशांत किशोर
सालों तक दूसरों को चुनाव जिताने की रणनीति बनाने वाले प्रशांत किशोर अब खुद अपनी पार्टी की किस्मत आज़माने को तैयार हैं. कभी पर्दे के पीछे से चुनावी समीकरण तय करने वाले PK अब मैदान में उतरने का मन बना चुके हैं.NDTV से बातचीत में उन्होंने साफ कहा, “किसने बोला कि नहीं लड़ेंगे? बिल्कुल लड़ेंगे. अगर ज़रूरत होगी तो लड़ेंगे. पार्टी तय करेगी.” यानि अब प्रशांत किशोर सिर्फ सलाह नहीं देंगे, बल्कि खुद जनता के बीच जाकर अपनी राजनीतिक ताकत को परखेंगे. रणनीतिकार से लेकर समाजसेवी और अब नेता बनने की यह यात्रा, बिहार की राजनीति में एक नया मोड़ ला सकती है.
तेजस्वी के गढ़ में PK की एंट्री, बिहार में बढ़ी सियासी गर्मी
बिहार की राजनीति के केंद्र में प्रशांत किशोर का नाम काफी चर्चा में है. वे हाल के दिनों में राघोपुर सीट पर सक्रिय रूप से प्रचार करते नज़र आए, जो बिहार की सबसे अहम राजनीतिक सीटों में से एक मानी जाती है. यह वही इलाका है, जिसका प्रतिनिधित्व कभी दो पूर्व मुख्यमंत्रियों, लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने किया था. वर्तमान में यह सीट राजद नेता तेजस्वी यादव के पास है.
हाल ही में प्रशांत किशोर ने एक बयान में कहा, “राघोपुर का हाल भी वही होगा जो अमेठी में राहुल गांधी का हुआ था.” उनका इशारा 2019 के लोकसभा चुनाव की ओर था, जब भाजपा नेता स्मृति ईरानी ने कांग्रेस के गढ़ अमेठी में राहुल गांधी को हराया था. हालांकि, प्रशांत किशोर ने अब राघोपुर से एक अन्य उम्मीदवार को उतारने का फैसला किया है और खुद चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी है. उन्होंने साफ कहा कि यह निर्णय पार्टी के हित में लिया गया है.
अगले महीने होने वाले बिहार चुनाव (Bihar Election) से पहले आइए नज़र डालते हैं प्रशांत किशोर पर — उस व्यक्ति पर जिसने कभी भारत की लगभग हर बड़ी पार्टी के लिए चुनावी रणनीतियाँ तय कीं, और अब अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी “जन सुराज” खड़ी की है.
जनसेवा से राजनीति तक – प्रशांत किशोर की दिलचस्प कहानी
बिहार के कोनार गांव में जन्मे 48 साल के प्रशांत किशोर का रिश्ता शुरू में राजनीति से नहीं, बल्कि जनसेवा से था. उनके पिता श्रीकांत पांडे डॉक्टर थे और माँ सुशीला पांडे गृहिणी. बचपन का कुछ हिस्सा उन्होंने उत्तर प्रदेश में बिताया और पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पब्लिक हेल्थ के क्षेत्र में काम करने का फैसला किया. प्रशांत किशोर का करियर अच्छे से चल रहा था. वे अफ्रीका के चाड (Chad) देश में संयुक्त राष्ट्र (UN) के साथ काम कर रहे थे. नौकरी अच्छी थी, ज़िंदगी स्थिर थी और भविष्य सुरक्षित था.
लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि उन्होंने संयुक्त राष्ट्र (United Nations) की स्थायी और सुरक्षित नौकरी छोड़कर अनिश्चितताओं से भरी राजनीति में कदम रख दिया?
यह सब शुरू हुआ एकरिसर्च पेपर से जो प्रशांत किशोर ने लिखा था. उसमें उन्होंने बताया था कि कई राज्य भले ही आर्थिक रूप से आगे बढ़ रहे हों, लेकिन वहां कुपोषण (malnutrition) अब भी बड़ी समस्या है. इस रिपोर्ट में गुजरात का हाल भी ठीक नहीं दिखाया गया था. यह रिपोर्ट सीधे तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी तक पहुंच गई. यहीं से उनकी कहानी बदल गई. 2011 में जब गुजरात चुनाव बस एक साल दूर थे, प्रशांत किशोर ने मोदी की टीम से जुड़कर चुनावी रणनीति बनाना शुरू किया.
इसके बाद जो हुआ, उसने भारतीय राजनीति का चेहरा ही बदल दिया क्योंकि यहीं से शुरू हुआ प्रशांत किशोर का सफर, जिसने देश में चुनावी कैंपेन करने का तरीका हमेशा के लिए बदल दिया.
हालांकि प्रशांत किशोर उस समय भाजपा के साथ करीब से काम कर रहे थे, लेकिन वे हमेशा पर्दे के पीछे काम करने वाले रणनीतिकार बने रहे. पीके एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जाने गए जिनकी पहचान उनके विचारों और रणनीतियों से थी, न कि चेहरे से. यहाँ तक कि 2012 में अहमदाबाद के एक अंग्रेज़ी अख़बार ने उन पर एक लेख प्रकाशित किया था लेकिन उसमें उनकी तस्वीर नहीं थी, क्योंकि किसी के पास उनकी तस्वीर ही नहीं थी. प्रशांत किशोर की रणनीतियाँ सफल रहीं और 2012 के गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने शानदार जीत दर्ज की. भाजपा ने 182 में से 115 सीटें हासिल कीं और मोदी लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बने रहे.
इसके बाद भाजपा ने अपना ध्यान केंद्र की सत्ता पर केंद्रित किया. और इस लक्ष्य को हासिल करने में प्रशांत किशोर से बेहतर मदद कौन कर सकता था! 2014 के आम चुनाव से पहले, 2013 में किशोर ने Citizens for Accountable Governance (CAG) नामक संस्था की सह-स्थापना की. इस टीम ने चुनाव प्रचार को नया रूप दिया. “चाय पर चर्चा”, 3D रैलियाँ, और “मंथन” जैसे अनोखे अभियान शुरू किए. साथ ही, पहली बार बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया को चुनाव प्रचार का मुख्य हथियार बनाया गया.
इन रणनीतियों का असर साफ दिखा- नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने.
हालांकि, मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पीके और भाजपा के बीच मतभेद सामने आने लगे. 2014 में “ब्रांड मोदी” की सफलता से मिली पहचान के साथ, प्रशांत किशोर ने नई राह चुनी. उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ हाथ मिलाया और महागठबंधन को 2015 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत दिलाई. इसके बाद उन्होंने अपनी कंपनी CAG का नाम बदलकर I-PAC (Indian Political Action Committee) रखा जो आगे चलकर भारत की चुनावी रणनीतियों का नया चेहरा बन गई.
रणनीति के मास्टर की पहली शिकस्त और फिर बदली राजनीति की राह
2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर को पहली बार राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में हार का सामना करना पड़ा. 2016 में कांग्रेस ने उन्हें अपनी चुनावी रणनीति बनाने के लिए जोड़ा, लेकिन नतीजे उम्मीद के उलट रहे. भाजपा ने 300 से ज़्यादा सीटें जीतीं, जबकि कांग्रेस सिर्फ 7 सीटों तक सिमट गई. यह हार उनके लिए झटका थी, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. इसके बाद उन्होंने पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, दिल्ली और तेलंगाना जैसे राज्यों में विजयी रणनीतियाँ बनाईं और कई पार्टियों को सत्ता तक पहुँचाया.
2018 में, प्रशांत किशोर जेडीयू (JD-U) में उपाध्यक्ष के रूप में शामिल हुए. लेकिन जनवरी 2020 में उन्हें “अनुशासनहीनता” के आरोप में पार्टी से निकाल दिया गया. उसी साल उन्होंने एक बयान दिया जो सुर्खियों में रहा. यह बयान था - “एक नेता के रूप में, मैं चाहता था कि नीतीश कुमार गांधी और गोडसे में से किसी एक को चुनें.” यह बात उन्होंने यूँ ही नहीं कही थी, उस वक्त उनके पीछे दीवार पर महात्मा गांधी की तस्वीर टंगी थी और उस के नीचे लिखा था, “The best politics is right action.” (सबसे अच्छी राजनीति सही कर्म है.)
रणनीति से जनसुराज तक – जब प्रशांत किशोर ने थामा नई राजनीति का रास्ता
मई 2022 में, जब प्रशांत किशोर ने इशारा दिया कि वे राजनीतिक सलाहकार (consultancy) की दुनिया से बाहर निकलना चाहते हैं, तभी उन्होंने एक नई पहल का ऐलान भी किया- अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी बनाने का विचार.
उन्होंने X पर लिखा: “लोकतंत्र में सार्थक भागीदारी और जनता के हित में नीतियाँ बनाने की मेरी कोशिश ने मुझे 10 साल की रोलरकोस्टर यात्रा कराई!” इसके साथ ही उन्होंने आगे जोड़ा, “अब नया पन्ना पलटने का समय है — असली मालिकों यानी जनता के पास लौटने का वक्त है… ताकि उनकी समस्याओं को समझकर ‘जन सुराज’- यानी जनता का सुशासन- की दिशा में आगे बढ़ा जा सके.”
उन्होंने अपने संदेश का अंत इन शब्दों से किया — “शुरुआत बिहार से.” (Shuruat Bihar se) यानी, जन सुराज की यात्रा वहीं से शुरू होगी जहाँ से उनकी कहानी शुरू हुई थी — बिहार से.
जन सुराज पार्टी की नींव
गांधी जयंती 2024 के दिन, प्रशांत किशोर ने औपचारिक रूप से जन सुराज पार्टी की शुरुआत की. यह पार्टी डॉ. भीमराव अंबेडकर और महात्मा गांधी दोनों को अपने राजनीतिक प्रतीक के रूप में मानती है. विचारधारा के लिहाज़ से यह पार्टी खुद को सेंटर से सेंटर-लेफ्ट (मध्यम से मध्यम-वाम) के बीच स्थित करती है, यानी ऐसी राजनीति जो विकास के साथ-साथ सामाजिक न्याय पर भी ज़ोर देती है.
जन सुराज पार्टी की शुरुआत जन सुराज अभियान से हुई थी. यह एक पदयात्रा थी, जिसकी शुरुआत 2 अक्टूबर 2022 को चंपारण के गांधी आश्रम से हुई. इस यात्रा के दौरान प्रशांत किशोर ने बिहार के लोगों से सीधे मुलाकात की, उनकी बातें सुनीं, उनकी समस्याओं को समझा और समाधान पर चर्चा की. लंबी यात्रा के बाद यह अभियान पटना में एक बड़े कार्यक्रम के साथ समाप्त हुआ जहाँ से जन सुराज पार्टी का औपचारिक शुभारंभ किया गया.
उस समय प्रशांत किशोर का दावा था कि पार्टी के पास पहले ही एक करोड़ से ज़्यादा सदस्य जुड़ चुके हैं जो इस नई राजनीतिक यात्रा की जनआधार शक्ति को दर्शाता है.
बिहार की सियासत में प्रशांत किशोर की अहमियत
आगामी बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर अब प्रशांत किशोर और उनकी पार्टी जन सुराज की भूमिका पर राजनीतिक बहस तेज हो गई है. केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने प्रशांत किशोर पर तंज कसते हुए कहा कि,
“उन्हें समझ में आ गया है कि वे चुनाव नहीं जीत पाएंगे, इसलिए उन्होंने खुद चुनाव न लड़ने का ऐलान किया.”
गिरिराज सिंह ने आगे कहा कि, “उन्होंने जन सुराज पार्टी बनाने में जो निवेश किया था, अब वह वापस ले लिया है. यह पार्टी सिर्फ एक ‘वोट-कटर’ पार्टी है. असल में, जन सुराज तो राजद (RJD) की ‘बी टीम’ है.”
उनके इस बयान ने साफ कर दिया कि जन सुराज पार्टी को लेकर भाजपा और अन्य दलों के बीच सतर्कता बढ़ गई है क्योंकि चाहे जन सुराज जीत पाए या नहीं, वह बिहार के चुनावी समीकरणों को ज़रूर प्रभावित कर सकता है.
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“किंगमेकर” से उम्मीदवार तक – बिहार में प्रशांत किशोर का नया राजनीतिक प्रयोग
भाजपा प्रवक्ता नीरज कुमार ने प्रशांत किशोर के चुनाव न लड़ने के फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह उनके पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए एक “अपमान” है.
हालाँकि, यह ध्यान देने योग्य है कि प्रशांत किशोर की पार्टी, जन सुराज ने 2024 के बिहार उपचुनाव में अपना पहला चुनावी डेब्यू किया. पार्टी ने चार सीटों- बेलागंज, इमामगंज (SC), रामगढ़, और तरारी से उम्मीदवार उतारे. हालाँकि जन सुराज को कोई जीत नहीं मिली, लेकिन इस अभियान ने प्रशांत किशोर की औपचारिक राजनीतिक एंट्री को चिन्हित किया और बिहार में एक नए राजनीतिक प्रयोग की नींव रख दी.
जिसे देश “किंगमेकर” के नाम से जानता है, उसने खुद एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा था —“चुनाव लड़ना, लड़ाना, जीतना ये तो मैं रोज़ करता हूँ.”
शायद यही आत्मविश्वास अब बिहार की राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत कर सकता है.
Note: This content has been translated using AI. It has also been reviewed by FE Editors for accuracy.
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