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Remembering Dr Manmohan Singh: डॉ मनमोहन सिंह भारत में नई आर्थिक नीतियों के शिल्पकार माने जाते हैं. Photograph: (Photo : PTI)
Remembering Dr Manmohan Singh: उन्होंने भारत के आर्थिक सुधारों का खाका तैयार किया, लाइसेंस राज की जंजीरों को तोड़ा और उस दौर में देश को संकट से बाहर निकाला जब रिजर्व बैंक को सोने का भंडार गिरवी रखना पड़ रहा था. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक ऐसे शिल्पकार थे, जिन्होंने न सिर्फ भारत में नई आर्थिक नीतियों की नींव रखी, बल्कि उस पर आर्थिक समृद्धि की इमारत खड़ी करने में भी बेमिसाल भूमिका निभाई. वह भी अपने सीधे-सादे व्यक्तित्व, सौम्य स्वभाव और आम-सहमति बनाकर चलने के राजनीतिक दायित्वों को निभाते हुए.
समझदार की खामोशी, कमजोरी या ताकत?
बातों से ज्यादा काम पर ज़ोर देने की उनकी प्रवृत्ति का विरोधियों ने भले ही मज़ाक उड़ाया हो, लेकिन शायद अपने इसी स्वभाव की वजह से मनमोहन सिंह वह सब करने में सफल हुए जिसे भारतीय अर्थव्यवस्था में एक खामोश क्रांति (Silent Revolution) का दर्जा दिया जा सकता है. अगर उनकी शख्सियत इतनी शांत-सौम्य और किसी को आक्रांत न करने वाली नहीं होती, तो शायद वे गठबंधन राजनीति के दौर में वैसे अहम फैसले और नीतिगत बदलाव नहीं कर पाते, जिन्हें उन्होंने बड़ी खामोशी से अंजाम दिया. अगर वे अपने हर काम, हर उपलब्धि का ढिंढोरा पीटने वाले नेता होते, तो विरोधी भले ही उन्हें ‘मौन-मोहन’ नहीं कह पाते, लेकिन तब शायद हम उन्हें आधुनिक भारत के ‘अजातशत्रु’ के तौर पर याद नहीं कर रहे होते.
मनमोहन सिंह ने 2004 से 2014 तक प्रधानमंत्री के तौर पर देश का नेतृत्व करने से पहले 1991 में वित्त मंत्री के रूप में देश में नई आर्थिक नीतियों की आधारशिला रखी. इस दौरान उनकी सरकार ने आर्थिक उदारीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ने के अलावा सूचना के अधिकार (RTI), शिक्षा के अधिकार (RTE) और मनरेगा जैसी ऐतिहासिक योजनाएं शुरू कीं. लेकिन उससे पहले भी वे करीब तीन दशकों तक देश के वित्त सचिव, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर, वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार समेत कई ऐसे अहम पदों पर रहे, जो देश के आर्थिक जीवन को दिशा देने, सजाने-संवारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
सामान्य जीवन से शीर्ष तक का सफर
मनमोहन सिंह ने राजनीतिक फायदे के लिए कभी अपनी साधारण पृष्ठभूमि के गाने नहीं गाए, लेकिन 26 सितंबर 1932 को पंजाब प्रांत के गांव गाह (अब पाकिस्तान) में जन्मे मनमोहन सिंह का बचपन बिलकुल जमीनी माहौल में बीता. उन्होंने गांव में रहकर मिट्टी के तेल के दीये की रोशनी में पढ़ाई से शुरुआत की और अपने टैलेंट के दमपर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा पाने वाले अर्थशास्त्री बने. 1948 में पंजाब यूनिवर्सिटी से मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से 1957 में अर्थशास्त्र में फर्स्ट क्लास ऑनर्स डिग्री ली और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से 1962 में डी.फिल की डिग्री प्राप्त की. पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपने करियर की शुरुआत पंजाब यूनिवर्सिटी में पढ़ाने से ही और फिर दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में भी पढ़ाया.
1971 में शुरू हुआ एक नया सफर
1971 में मनमोहन सिंह ने भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार की जिम्मेदारी संभाली और अगले ही साल यानी 1972 में वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार बना दिए गए. 1987 से 1990 तक उन्होंने साउथ कमीशन के सेक्रेटरी जनरल के रूप में जिनेवा में काम किया. इसके अलावा उन्होंने समय-समय पर भारत सरकार के वित्त सचिव, योजना आयोग के उपाध्यक्ष, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर, प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार और यूजीसी के चेयरमैन जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी संभालीं.
1991 में पहली बार सांसद बने
डॉ मनमोहन सिंह 1991 में राज्यसभा के सदस्य बने. इसी सदन के सदस्य रहते हुए उन्होंने नरसिंह राव की सरकार में वित्त मंत्री रहते हुए उदारीकरण और ग्लोबलाइजेशन की शुरुआत की और देश की आर्थिक नीतियों को एक नई दिशा देने का काम किया. 1991 में जब मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री की जिम्मेदारी संभाली तो देश आर्थिक संकट का सामना कर रहा था. अपने इंपोर्ट बिल और कर्ज चुकाने के लिए भी आरबीआई को 46.91 टन सोना गिरवी रखकर 400 मिलियन डॉलर जुटाने पड़े थे. मनमोहन सिंह ने ऐसे मुश्किल वक्त में देश की अर्थव्यवस्था को बहुत अच्छी तरह संभाला और कुछ ही महीनों में देश का गिरवी रखा सोना कर्ज चुकाकर वापस ले आए. 1996 में नरसिंह राव की अगुवाई में कांग्रेस के चुनाव हारने के बाद मनमोहन सिंह ने विपक्षी सांसद के तौर पर संसद में योगदान दिया और 1998 से 2004 तक राज्यसभा में नेता विपक्ष का दायित्व संभाला.
2004 में सोनिया गांधी का एतिहासिक फैसला
2004 के लोकसभा चुनाव में यूपीए की जीत के बाद सोनिया गांधी ने पार्टी के भारी दबाव के बावजूद प्रधानमंत्री पद स्वीकार करने से इनकार कर दिया और अपनी जगह मनमोहन सिंह को यह जिम्मेदारी सौंपी. उन्होंने 22 मई 2004 को भारत के 14वें प्रधानमंत्री के रूप में देश की बागडोर संभाली. उनका यह कार्यकाल देश के आर्थिक विकास के लिहाज से मील का पत्थर साबित हुआ.
2009 में देश की जनता ने उनकी सरकार के कामकाज पर मुहर लगाते हुए यूपीए को दोबारा सत्ता सौंपी. 22 मई 2009 में लगातार दूसरी बार भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ लेने के बाद वे 2014 तक इस पद पर रहे. 1991 में राज्यसभा सदस्य बनने से शुरू हुआ उनका संसदीय राजनीति का करियर करीब 33 साल लंबा रहा, लेकिन उन्होंने कभी लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा.
गठबंधन के दबावों के बीच संतुलन की मिसाल
प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह के 10 साल के कार्यकाल को गठबंधन के दबावों के बीच आपसी सहयोग और संतुलन से सरकार चलाने की मिसाल माना जा सकता है. वे राजनीति में लगभग अनचाहे कदम रखने वाले व्यक्ति थे, जिन्हें सक्रिय राजनीति के उतार-चढ़ावों का सामना करना पड़ा. तमाम विवादों के बीच भी मनमोहन सिंह की ईमानदारी और देश के आर्थिक विकास के प्रति उनकी निष्ठा संदेह से परे रही. डॉ मनमोहन सिंह की पहचान हमेशा एक निस्वार्थ राजनेता की बनी रही. विरोधी भले ही उन्हें "मौनमोहन सिंह" कहते हों, लेकिन अपनी शांत छवि के बावजूद वे एक दृढ़ संकल्प वाले नेता थे. इसकी झलक देश ने उस वक्त देखी थी, जब 2008 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के कारण उनकी सरकार लगभग गिरने की स्थिति में आ गई थी, लेकिन उन्होंने गठबंधन के कुछ सहयोगी दलों के दबाव में झुकने की बजाय उनका मुकाबला पूरे आत्मविश्वास से किया और संसद में विश्वास मत जीत लिया. उस वक्त अपनी सरकार के खिलाफ पेश अविश्वास प्रस्ताव का जवाब देते हुए उन्होंने कहा था, "लोकतंत्र की महानता यही है कि हम सभी प्रवासी पक्षियों की तरह हैं. जो आज हैं, कल चले जाएंगे. लेकिन इस दौरान जो जिम्मेदारी हमें जनता देती है, उसे ईमानदारी और निष्ठा से निभाना हमारा कर्तव्य है."
क्या अब होगा मनमोहन सिंह के योगदान का सही मूल्यांकन?
मनमोहन सिंह का निजी जीवन उनकी सादगी का प्रतीक था. उनकी पत्नी गुरशरण कौर और तीन बेटियां हमेशा सुर्खियों से दूर रहीं और एक साधारण जीवन जिया. विरोधियों के तीखे हमलों और अभद्र टिप्पणियों के बावजूद उन्होंने कभी शालीनता नहीं छोड़ी और अपने पद और व्यक्तित्व की गरिमा हमेशा बनाए रखी. 1971 में वाणिज्य मंत्रालय के आर्थिक सलाहकार बनने से लेकर 2014 में प्रधानमंत्री के तौर पर दूसरा कार्यकाल पूरा करने तक, यानी 4 दशक से ज्यादा समय तक, उन्होंने किसी न किसी रूप में देश की आर्थिक नीतियों की दशा-दिशा को प्रभावित किया. देश के इतिहास में किसी राजनेता के जीवन की ऐसी दूसरी मिसाल मिलनी मुश्किल है.
प्रधानमंत्री के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल के आखिरी दिनों में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने अपनी सरकार के कामकाज और नीतियों की चर्चा करते हुए कहा था, "मुझे पूरी उम्मीद है कि वर्तमान मीडिया और विपक्षी दलों की तुलना में इतिहास मेरा मूल्यांकन ज्यादा उदारता के साथ करेगा." डॉ मनमोहन सिंह के निधन के बाद देश-विदेश में उन्हें जिस तरह याद किया जा रहा है, उससे उनकी कही वह बात सही होती नजर आ रही है. सवाल ये है कि ये बातें सिर्फ फौरी तौर पर कही जा रही हैं या डॉ मनमोहन सिंह का मूल्यांकन करने वालों के बीच किसी गहरे रियलाइजेशन की तरफ इशारा करती हैं?