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Warren Buffett: अगर बफेट भारत में होते, तो सिर्फ SIP पर भरोसा करते या फिर..

वॉरेन बफेट ने अपनी दौलत किसी उत्साह या हड़बड़ी से नहीं बल्कि डिसिप्लिन और कंपाउंडिंग से बनाई. भारत में एसआईपी उसी फिलॉसफी को अपनाने का सबसे आसान तरीका है.

वॉरेन बफेट ने अपनी दौलत किसी उत्साह या हड़बड़ी से नहीं बल्कि डिसिप्लिन और कंपाउंडिंग से बनाई. भारत में एसआईपी उसी फिलॉसफी को अपनाने का सबसे आसान तरीका है.

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Parth Parikh
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लगातार लगती रहने वाली SIPs ही दौलत बढ़ाने का सबसे बढ़िया तरीका हैं. (AI Image: Gemini)

Breakfast with Buffett : मुझे आज भी वो दिन याद है जब मैंने पहली बार एसआईपी शुरू की थी. रकम सिर्फ तीन हजार रुपये थी, वो भी मेरी छोटी-सी सैलरी से. उस वक्त ये बहुत मामूली लगा. लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी, हर महीने निवेश करता रहा, चाहे बाजार चढ़ा हो या गिरा. दस साल बाद वही मामूली सी आदत एक ऐसे पोर्टफोलियो में बदल गई जिसने मुझे खुद चौंका दिया. ये किस्मत का खेल नहीं था, ये था कंपाउंडिंग का असर, जो चुपचाप अपना काम करता रहा.

वॉरेन बफेट (Warren Buffett) हमेशा कहते हैं कि उनकी दौलत समय, अनुशासन और कंपाउंड इंटरेस्ट का नतीजा है. उनकी 99 प्रतिशत से ज्यादा संपत्ति पचास साल की उम्र के बाद बनी, क्योंकि उनका स्नोबॉल साल दर साल लुढ़कता गया और बड़ा होता गया. यही सबक भारत में भी आज बेहद अहम है. अगर कोई हर महीने दस हजार रुपये अच्छे इक्विटी म्यूचुअल फंड में लगाता, तो पिछले अनुभव के मुताबिक दस साल में वो रकम करीब पच्चीस लाख तक पहुंच जाती, क्योंकि औसतन सालाना रिटर्न 12 से 14 प्रतिशत रहा है. और अगर किसी ने 1979 में सिर्फ सेंसेक्स में एक लाख रुपये लगाए होते और उसे छेड़ा न होता, तो 2024 तक वो रकम आठ करोड़ से ज्यादा हो चुकी होती.

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अगर बफेट भारत में होते तो वे रोजाना के स्टॉक टिप्स और छोटे सौदों की भागदौड़ से दूरी बनाकर रखते. वे चुपचाप एसआईपी शुरू करते, कंपाउंडिंग को अपना काम करने देते और समय पर भरोसा करते, टाइमिंग पर नहीं. क्योंकि असली दौलत अचानक किसी बड़े मौके को पकड़ने में नहीं बल्कि लंबे समय तक निवेश में टिके रहने में है, ताकि ज्वार खुद आपको आगे बढ़ा सके.

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बफेट क्यों SIP को देते हैं ज्यादा तवज्जो?

वॉरेन बफेट हमेशा कहते हैं कि निवेश समझदारी से ज्यादा स्वभाव पर निर्भर करता है. सबसे बड़ी चुनौती सही स्टॉक चुनना नहीं बल्कि अपनी भावनाओं को काबू में रखना है. यही वजह है कि भारत में एसआईपी का तरीका इतना कारगर है. इसमें हर महीने फैसले लेने की झंझट नहीं रहती. एक बार शुरुआत कर दीजिए, पैसा अपने आप निवेश होता रहेगा, चाहे बाजार चढ़ रहा हो या गिर रहा हो.

मैंने खुद यह अनुभव 2020 जैसे उथल-पुथल भरे साल में किया. मार्च में जब चारों तरफ डर का माहौल था, उस समय मेरी एसआईपी से ज्यादा यूनिट्स खरीदे गए क्योंकि दाम नीचे आ चुके थे. और जब अगले साल बाजार संभला तो वही यूनिट्स उम्मीद से कहीं ज्यादा फायदा लेकर आए. यही है रुपया-लागत औसत की ताकत. हर महीने तय रकम लगाते रहिए, दाम कम होंगे तो ज्यादा यूनिट्स मिलेंगे और दाम बढ़ेंगे तो कम. धीरे-धीरे यही तरीका उतार-चढ़ाव को संतुलित कर देता है और संपत्ति लगातार बढ़ती जाती है.

आंकड़े इस सच्चाई को और मजबूत करते हैं. पिछले दस साल में भारतीय इक्विटी म्यूचुअल फंड्स ने औसतन बारह से पंद्रह प्रतिशत सालाना रिटर्न दिया है. बाजार में गिरावट आने के बाद भी जिन्होंने अनुशासन के साथ एसआईपी जारी रखी, वे उन लोगों से कहीं आगे निकल गए जिन्होंने हर बार बाजार को टाइम करने की कोशिश की. सेबी के ताजा आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 2024 में भारत में हर महीने एसआईपी के जरिए औसतन बीस हजार करोड़ रुपये से ज्यादा निवेश हुआ और आठ करोड़ से ज्यादा सक्रिय खाते बने. यह कोई तात्कालिक फैशन नहीं बल्कि चुपचाप चल रही एक आर्थिक क्रांति है.

बफेट को यह सब बेहद अपना-सा लगता. वे हमेशा निरंतरता की ताकत का उदाहरण देते रहे हैं. एसआईपी उसी निरंतरता का नाम है. यह भविष्य पर, कारोबार पर और अर्थव्यवस्था पर भरोसे का संकेत है. इसमें शोर-शराबा नहीं होता, बस वही चीज बचती है जो सबसे अहम है, यानी बाजार में टिके रहना और कंपाउंडिंग को वक्त के साथ अपना जादू दिखाने देना.

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कंपाउंडिंग का स्नोबॉल इफेक्ट

वॉरेन बफेट अकसर दौलत को एक बर्फ़ के गोले से जोड़कर समझाते हैं. मान लीजिए, कोई छोटा-सा गोला पहाड़ी पर से लुढ़कना शुरू करता है. शुरू में वो धीमा और छोटा लगता है, लेकिन जैसे-जैसे नीचे आता है, बर्फ़ चिपकती जाती है, वो बड़ा होता जाता है और उसकी रफ़्तार ऐसी पकड़ती है कि कोई रोक नहीं सकता. यही है कंपाउंडिंग का असली खेल. और भारत जैसे देश में एसआईपी उस स्नोबॉल को लुढ़काने का सबसे आसान तरीका है.

जब मैंने तीन हज़ार रुपये की एसआईपी शुरू की थी, पहला साल देखकर थोड़ी मायूसी हुई. खाते में सिर्फ मामूली-सा फायदा दिख रहा था. लेकिन पांच साल बाद तस्वीर बदलने लगी. अब रिटर्न भी अपने ऊपर रिटर्न बनाने लगे थे. मेरा लगाया पैसा अकेला मेहनत नहीं कर रहा था, कंपाउंडिंग का असर काम कर रहा था. यही कहानी बफेट की भी है. उनकी 99 प्रतिशत से ज्यादा दौलत पचास साल की उम्र के बाद बनी, वजह ये नहीं कि उन्होंने कोई नया दांव खेला, बल्कि इसलिए कि उनका स्नोबॉल इतना बड़ा हो चुका था कि खुद ब खुद तेजी से लुढ़कने लगा.

भारत में भी यही गणित चौंकाता है. अगर कोई हर महीने दस हज़ार रुपये इक्विटी फंड में लगाए और औसतन 12 प्रतिशत सालाना रिटर्न मिले, तो बीस साल में वो रकम करीब एक करोड़ तक पहुंच सकती है. तीस साल तक टिके रहिए, तो वही एसआईपी साढ़े तीन करोड़ से ऊपर निकल सकती है. असली राज़ ऊंचे रिटर्न के पीछे भागने में नहीं, बल्कि कंपाउंडिंग को वक्त देने में है ताकि वो अपना चुपचाप चलता जादू दिखा सके. इतिहास गवाह है, 1979 से अब तक सेंसेक्स ने औसतन 16 प्रतिशत सालाना रिटर्न दिए हैं, जिसने एक लाख रुपये को 2024 तक आठ करोड़ से ज्यादा में बदल दिया. ये है कंपाउंडिंग की ताकत, दशकों में नजर आने वाली.

बफेट हमें यही सिखाते हैं कि कंपाउंडिंग सिर्फ कोई फॉर्मूला नहीं बल्कि एक सोच है. इसमें धैर्य चाहिए, अनुशासन चाहिए और इतना विनम्र होना चाहिए कि वक्त को भारी काम करने दिया जाए. भारतीय निवेशकों के लिए एसआईपी उसी सोच का प्रतीक है. हर महीने की छोटी-सी किश्त मानो उस स्नोबॉल को और नीचे धकेल देती है. शुरुआती साल थोड़े सुस्त लगते हैं, लेकिन टिके रहिए, आगे चलकर यही साल आपकी पूरी वित्तीय ज़िंदगी बदल सकते हैं.

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बाजार टूटे तो संयम रखें

अगर वॉरेन बफेट की बातों को एक वाक्य में समेटना हो तो वो यही कहेंगे कि निवेश दिमाग से कम और स्वभाव से ज्यादा जुड़ा है. उनका मशहूर जुमला है – जब बाकी लालच में हों तो डरिए, और जब बाकी डर में हों तो लालची बनिए. सुनने में आसान लगता है, लेकिन असल जिंदगी में करना सबसे मुश्किल होता है. बाजार टूटता है तो पहला ख्याल यही आता है कि पैसा निकाल लो या निवेश रोक दो. यही वो पल होता है जब ज़्यादातर लोग हार जाते हैं.

मेरी असली परीक्षा 2020 में आई, जब महामारी का असर बाजार पर टूटा. खबरें डरावनी थीं, सेंसेक्स करीब 40 प्रतिशत गिर चुका था, हर अखबार-अखबार अनिश्चितता की चीख पुकार कर रहा था. मेरे कई दोस्तों ने अपनी एसआईपी रोक दीं, यह सोचकर कि हालात सुधरेंगे तो फिर शुरू करेंगे. मैंने फैसला किया कि मेरी एसआईपी चलती रहेगी. पोर्टफोलियो को लाल में डूबा देखना आसान नहीं था, लेकिन मैंने प्रक्रिया पर भरोसा किया. वही डर के महीने मेरी सबसे बेहतरीन निवेश साबित हुए. कम दाम पर खरीदे गए यूनिट्स बाद में बाजार संभलते ही सबसे ज्यादा फायदा दे गए.

इतिहास भी यही कहानी दोहराता है. 2008 की वैश्विक मंदी हो, 2013 का टेपर टैंट्रम, 2016 का नोटबंदी झटका या 2020 की कोविड गिरावट – हर बड़ी गिरावट में जिन्होंने एसआईपी जारी रखी, उन्हें लंबी अवधि में उन निवेशकों से कहीं बेहतर रिटर्न मिले जिन्होंने बीच में पैसा निकालने की कोशिश की. एएमएफआई के आंकड़े बताते हैं कि 2008 के संकट में भी जिन निवेशकों ने एसआईपी जारी रखी और दस साल तक टिके रहे, उन्हें 2018 तक सालाना डबल डिजिट रिटर्न मिला, उतार-चढ़ाव के बावजूद.

यही वजह है कि एसआईपी बफेट की सोच से पूरी तरह मेल खाती है. ये निवेशक को घबराहट के वक्त फैसले करने से बचाती है. आपको यह तय करने की जरूरत नहीं रहती कि कब खरीदना है और कब बेचना है, क्योंकि एसआईपी आपके लिए खुद ही निवेश करती रहती है – डर और उत्साह, दोनों के दौर में. जैसा कि बफेट कहते हैं, बाजार हमेशा संपत्ति को अधीर से लेकर धैर्यवान निवेशक के पास पहुंचाने के लिए बना है. भारत में एसआईपी ने उस धैर्यवान निवेशक बनना आसान कर दिया है, जहां अनुशासन आखिरकार डर पर जीत हासिल करता है.

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बड़ा फंड कुछ दिनों या महीनों में नहीं बल्कि दशकों में बनती है 

वॉरेन बफेट अक्सर कहते हैं कि उनका पसंदीदा होल्डिंग पीरियड है – हमेशा के लिए. उनका मतलब साफ है कि असली दौलत दिनों या महीनों में नहीं बल्कि दशकों में बनती है. यही लंबी नज़र निवेशक को सट्टेबाज़ से अलग करती है. और भारत जैसे देश में किसी निवेशक के लिए एसआईपी उस नज़रिए को ज़िंदगी में उतारने का सबसे सरल तरीका है.

जब मैंने अपनी एसआईपी शुरू की थी, तब दिमाग में एक-दो साल में पैसा बनाने का ख्याल नहीं था. सोच थी बेटी की पढ़ाई, अपनी रिटायरमेंट की तैयारी और ऐसा भविष्य जिसमें हर रोज़ की बाजार की सुर्खियों की चिंता न करनी पड़े. यही वजह है कि एसआईपी मुझे सहज लगी. यह जल्दी मुनाफे के लिए नहीं थी, बल्कि लंबे सफर के लिए नींव डालने जैसा काम था.

आंकड़े बताते हैं कि लंबा नज़रिया क्यों मायने रखता है. इक्विटी फंड्स में हर महीने दस हज़ार रुपये की एसआईपी बीस साल में लगभग एक करोड़ तक पहुंच सकती है और तीस साल में तीन करोड़ पचास लाख से ऊपर, अगर औसतन 12 प्रतिशत सालाना रिटर्न मिले. इस ग्रोथ की असली वजह रिटर्न का प्रतिशत नहीं बल्कि निवेश में बिताया गया समय है. भारतीय आंकड़े भी कहते हैं कि पंद्रह साल से ज़्यादा तक चलने वाली एसआईपी ने लगभग कभी घाटा नहीं दिया, चाहे आपने शुरुआत किसी भी दौर में क्यों न की हो.

बफेट ने बर्कशायर हैथवे को इसी सोच से खड़ा किया. 1965 से 2024 तक कंपनी ने लगभग 20 प्रतिशत सालाना की दर से कंपाउंडिंग की, जिसने हजार डॉलर को साढ़े चार करोड़ डॉलर से भी ज़्यादा में बदल दिया. इसकी वजह ये नहीं थी कि बफेट हर ट्रेंड का पीछा कर रहे थे, बल्कि इसलिए कि उन्होंने कारोबारों में दशकों तक टिके रहना चुना. भारतीय निवेशकों के लिए एसआईपी उसी फिलॉसफी का सबसे नज़दीकी रूप है – एक अनुशासित और व्यवस्थित तरीका, जो जीवन के बड़े लक्ष्यों के लिए निवेश जारी रखता है, बिना शॉर्ट-टर्म शोरगुल से विचलित हुए.

लंबे समय की सोच आपको बाजार की टाइमिंग की चिंता से आज़ाद करती है. यही बफेट की सीख से मेल खाती है – समय, कंपाउंडिंग और निरंतरता को चुपचाप आपके पक्ष में काम करने दीजिए, नतीजे खुद सामने आ जाएंगे.

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निवेशकों को समझना जरूरी

जब मैं अपनी एसआईपी के सफर को पीछे मुड़कर देखता हूं तो वो बहुत ही साधारण लगता है. हर महीने थोड़ी-सी रकम अलग रखी, ऑटोमैटिक निवेश हो गया, न कोई नाटकीय पल, न कोई बड़ी हलचल. लेकिन आज जब पोर्टफोलियो पर नज़र डालता हूं तो समझ आता है कि यही साधारण-सी आदत वक्त के साथ कितनी असाधारण हो सकती है. मुझे वॉरेन बफेट की वह बात याद आती है – निवेश करना आसान है, लेकिन आसान नहीं लगता. असली चुनौती एसआईपी को समझने में नहीं है, बल्कि उसमें टिके रहने में है, इतना लंबा कि कंपाउंडिंग अपना असर दिखा सके.

मैंने अपने दोस्तों को देखा है जो बाजार टाइम करने की कोशिश में लगे रहे, टिप्स के पीछे भागते रहे या ट्रेडिंग में हाथ आजमाते रहे. कुछ को थोड़े समय के लिए सफलता मिली, लेकिन ज़्यादातर टिक नहीं पाए. मेरे लिए फर्क किस्मत या हुनर ने नहीं बनाया, फर्क बनाया इस आदत ने – हर महीने निवेश जारी रखने की आदत, अच्छे वक्त में भी और मुश्किल वक्त में भी. यही वजह है कि मुझे यकीन है, अगर बफेट भारत में होते तो वे ना अगले हॉट आईपीओ के पीछे भागते, ना ही एफ एंड ओ के सौदों में उलझते. वे शांति से एसआईपी चलाते रहते, जानते हुए कि अनुशासन और धैर्य हर बार उत्तेजना पर भारी पड़ते हैं.

ऐसे उन निवेशकों के लिए यह समझना जरूरी हो जाता है कि जो अपनी रेगुलर सेविंग को निवेश करने सोच रहे हैं लेकिन समझ नहीं आ रहा कि कहां से शुरुआत करें? ऐसे लोग छोटी रकम से ही शुरूआत करने के बारे में फैसला लें सकते हैं लेकिन इसमें देरी करने की बजाय जल्द फैसला लेना लंबी अवधि के लिए मददगार साबित हो सकता है. ऐसे लोगों को सलाह है कि सही बाजार स्तर का इंतजार मत कीजिए. बाजार गिरने पर रुकिए मत. बीज बोइए, हर महीने पानी दीजिए और वक्त को अपना काम करने दीजिए. दस साल बाद जब आप पीछे मुड़कर देखेंगे, तो आपको वही सुकून मिलेगा जो मुझे आज है – कि आपने अव्यवस्था पर निरंतरता को चुना, घबराहट पर धैर्य को और शॉर्टकट पर कंपाउंडिंग को. क्योंकि आखिर में दौलत शोर में नहीं बनती. दौलत बनती है खामोशी में, ईंट दर ईंट, एसआईपी दर एसआईपी.

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डिसक्लेमर

नोट : यह लेख फंड रिपोर्ट्स, इंडेक्स के पुराने रिकॉर्ड और सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारियों पर आधारित है. विश्लेषण और उदाहरणों के लिए कुछ जगहों पर हमारे अपने अनुमान भी शामिल किए गए हैं.

इस लेख का उद्देश्य निवेश से जुड़ी समझ, आंकड़े और सोच को पाठकों के साथ साझा करना है. इसे किसी भी तरह की निवेश सलाह न समझें. अगर आप यहां बताई किसी भी निवेश धारणा पर अमल करना चाहते हैं तो किसी योग्य वित्तीय सलाहकार से राय लेना बेहद ज़रूरी है. यह लेख केवल शैक्षिक उद्देश्य से लिखा गया है. यहां व्यक्त विचार पूरी तरह निजी हैं और इनका मेरे वर्तमान या पूर्व नियोक्ताओं से कोई संबंध नहीं है.

पार्थ पारिख को वित्त और रिसर्च के क्षेत्र में दस साल से ज्यादा का अनुभव है. वे इस समय फिनसायर में ग्रोथ और कंटेंट स्ट्रैटेजी का नेतृत्व कर रहे हैं, जहां वे निवेशक शिक्षा से जुड़े काम और उत्पादों पर काम करते हैं, जैसे लोन अगेंस्ट म्यूचुअल फंड्स (LAMF) और बैंकों व फिनटेक कंपनियों के लिए वित्तीय डेटा सॉल्यूशंस.

Note: This content has been translated using AI. It has also been reviewed by FE Editors for accuracy.

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